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पराक्रमके प्राङ्गणमे कुछ लोगोकी धारणा है कि अब सम्पूर्ण विश्वमे वीरताकी क्रियात्मक शिक्षा देनेमे ही मानव जातिका कल्याण है। यह युग 'Survival of the fittest'-'जाको वल ताहीको राज' की शिक्षा देता हुआ यह बताता है कि बिना बलशाली बने इस संघर्ष और प्रतिद्वन्द्वितापूर्ण जगत्मे सम्मानपूर्ण जीवन सभव नही। बलमुपास्व-गक्तिकी उपासना करो यह मत्र आज आराध्य है। दीन-हीनके लिये सजीव प्रगतिशील मानव-समाजमें स्थान नहीं है। उन्हें तो मृत्युकी गोदमे चिरकाल पर्यंत विश्राम लेनेकी सलाह दी जाती है। जैन आचार्य वादीभसिह सूरि अपने क्षत्रचूडामणिमे 'वीरभोग्या वसुन्धरा' लिखकर वीरता की ओर प्रगति-प्रेमी पुरुषोका ध्यान आकर्षित करते है। हिंदू शास्त्रकार इस दिशामे तो यहा तक लिखते है कि बिना शक्ति-सचय किये यह मानव अपने आत्मस्वरूपकी उपलब्धि करनेमे समर्थ नही हो सकता। उनका प्रवचन कहता है “नायमात्मा वलहीनेन लभ्यः।" जैनशास्त्रकारोने इस सबधमे और भी अधिक महत्त्वकी बात कही है कि निर्वाण-प्राप्तिके योग्य अतिशय साधनाको क्षमता साधारण नि सत्त्व शरीर द्वारा सम्पन्न नहीं होती, महान् तल्लीनता रूप शुक्लध्यानकी उपलब्धि के लिए वजूशरीरी अर्थात् वज़वृषभ-नाराच-सहननधारी होना अत्यत आवश्यक है। ___कुछ लोगोकी ऐसी भी समझ है कि वास्तविक वीरताके विकासके लिये अहिंसाकी आराधना असाधारण कटकका कार्य करती है। अहिंसा
और वीरतामे उन्हे आकाश-पातालका अतर दिखाई देता है। वे लोग यह भी सोचते है कि वीरताके लिये मास भक्षण करना, शिकार खेलना १ "उत्तमसंहननस्य एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहुर्तात्।"
-त० सूत्र ६।२७