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जैनशासन
वस्तुस्वरूपका प्रतिपादक सिद्धान्त क्यो न अनादि होगा ? इस पद्धति से विचार करनेपर जैनधर्म विश्वका सर्वप्राचीन धर्म माना जायगा । यह धर्म सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् के द्वारा प्रतिपादित सत्यका पुञ्जस्वरूप है, अत इसमे कालकृत भिन्नताका दर्शन नही होता और यह एकविध पाया जाता है । स्मिथ सदृश इतिहासवेत्ताओ ने इसे स्वीकार किया है कि जैनधर्मका वर्तमान रूप ( Present form ) लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी विद्यमान था । वौद्धपाली ग्रन्थोसे भी इसकी प्राचीनताका समर्थन होता है। जैनशास्त्र बताते है कि इतिहालातीत कालमे भगवान् वृषभदेवने अहिसात्मक धर्मको प्रकाशित किया, जिसको पुन पुन प्रकागमे लानेका कार्य शेष २३ तीर्थंकरोने किया। प्राचीनताके वदकोके लिए भी जैन सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है ।
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१. “The Nigganthas ( Jains) are never referred to by the Buddhists as being a new sect, nor is their ieputed founder Nataputta spoken of as then founder, whence Jacobi plausibly argues that their real founder was older than Mahavua and that this sect preceded that of Buddha'.
—Religion of India by P1of E W Hopkins p. 288. बौद्धने निर्मन्थो (जैनो) का नवीन संप्रदाय के रूपमें उल्लेख नही किया है और न उनके विख्यात संस्थापक नातपुतका संस्थापकके रूपमें ही किया है । इससे जैकोबी इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि जैनधर्मके संस्थापक महाबीरकी अपेक्षा प्राचीन है तथा यह सप्रदाय बौद्ध संप्रदाय के पूर्ववर्ती है।