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इतिहासकं प्रकागमें
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वसिष्ठ मूनि है और हिंसात्मक वलिदानके समर्थक विश्वामित्र ऋपि ह | यह आश्चर्यप्रद बात है कि अहिंसा पक्षका समर्थन क्षत्रिय नरेश करते हैं और हिसात्मक वलिदानकी पुष्टि ब्राह्मणवर्गके द्वारा होती है। वैदिक युगके अनन्तर ब्राह्मणसाहित्यका समय आया । उसमे पूर्वोक्त धाराद्वयका सघर्ष वृद्धिंगत होता है । शतपथ ब्राह्मणमें कुस्पाचालके विप्रवर्गको लादेश किया गया है कि - तुम्हें कागी, कौशल, विदेह, मगवकी ओर नही जाना चाहिए, कारण इससे उनकी शुद्धताका लोप हो जायगा । उन देशोमे पशुवलि नही होती है, वे लोग पशुवलि निषेधको सच्चा धर्म बताते हैं । ऐसी अवस्थामं कुरुपाचाल देववालोका काशी आदिकी ओर जाना अपमानको आमंत्रित करना है। पूर्व की ओर नही जानेका कारण यह भी बताया है कि वहा क्षत्रियोकी प्रमुखता है, वहा ब्राह्मणादि तीन वर्णोको सम्मानित नही किया जाता। इससे पूर्व देशोकी ओर जानेसे कुरुपाचालीय विप्रवर्गके गौरवको क्षति प्राप्त होगी ।
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वाजसनेयी संहितासे विदित होता है कि पूर्व देवके विद्वान् शुद्ध संस्कृत भाषा नही बोलते थे। उनकी भाषामे 'र' के स्थानमे 'ल' का प्रयोग होता था । इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस समय प्राकृत भाषाका प्रचार था, जिससे पाली तथा अर्वाचीन प्राकृत भाषाकी उत्पत्ति हुई। प्राकृत भाषाका प्रयोग जैन साहित्यमे पाया जाता है ।
उपनिषद्-कालीन साहित्यका अनुशीलन सूचित करता है कि उसमे आत्मविद्याके साथ ही साथ तपञ्चर्यको भी उच्च धर्म बताया है। इस युगमे हम देखते हैं कि कुरुपाचालीय विप्रगण पूर्वीय देशोकी ओर गमन करनेको उत्कण्ठित दिखाई पडते है कारण वहा उन्हें आत्मविद्याके अभ्यास करनेका सौभाग्य प्राप्त होता है। पहले जिसको वे कुधर्म कहते थे, अव उसे ही प्राप्त करनेको वे लालायित है । याज्ञवल्क्य और राजपि
१ "सासणमलिहताणं परिवज्जह" मुद्राराक्षस अंक ४ :