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जैनशासन
जनक आत्मविद्याके समर्थक है और अप्रत्यक्ष रीतिसे पत्रावलि वाले पुरातन सिद्धांतका निषेध करते है । इस प्रकार आत्मविद्याके समर्थक ही पशुबलिके विरोधक थे । इनको ही प्रोफेसर चक्रवर्ती जैनधर्मके पूर्व पुरुष कहते है । जैनधर्मके अनुसार क्षत्रिय कुलमे उत्पन्न होने वाले चौबीस तीर्थंकर ही अहिंसा धर्मका सरक्षण करते हैं । अतएव यह दृढ़ता पूर्वक कहा जा सकता है, कि जैनधर्म कम से कम वैदिक धर्मके समान प्राचीन अवश्य है ।
कोई कोई व्यक्ति सोचते है, कि वेदमे जैन संस्कृतिके संस्थापक तथा उन्नायकोका उल्लेख क्यों आता है, जब कि वेद अन्य धर्मकी पूज्य वस्तु है ? इसके समाधानमे किन्ही किन्ही विद्वानोका यह अभिमत है कि जव तक वेद अहिंसाके समर्थक रहे, तब तक वे जैनियोके भी सम्मानपात्र रहे। जब 'अजैर्यष्टव्यम्' मंत्र के अर्थ पर पर्वत और नारदमे विवाद हुआ, तव न्याय-प्रदाताके रूपमे मोहवण राजा वसुने 'अज' शव्दका अर्थ अंकुर उत्पादन शक्ति रहित तीन वर्षका पुराना धान्य न करके 'बकरा' बताया और हिंसात्मक बलिदानका मार्ग प्रचारित किया । जैन हरिवंशपुराणकी इस कथाका समर्थन महाभारतमे भी मिलता है । इस प्रकार अहिंसात्मक वेदकी धारा पशु बलिकी ओर झुकी। अत अहिंसाको अपना प्राण माननेवाले जैनियोने वेदको प्रमाण मानना छोड दिया । पूर्वमे वेदोका जैनियो में आदर था, इसलिये ही वेदमे जैन महापुरुषोसे सम्बन्धित मंत्रादिका सद्भाव पाया जाता है, किन्तु खेद है कि साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण उस सत्यको विनष्ट किया जा रहा है।
१ "We may make bold to say that Jainism, the rehgion of Ahumsa (non-injury) is probably as old as the Vedic religion, if not older." Cultural Heritage of India P. 185-8.
२ देखो -हरिवंशपुराण पर्व १७, पृ० २६३ - २७२ ।