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जैनशासन
भीलोने भी रामचद्रजीसे जुहार की है और अपनी भेट अर्पित की
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"कर्राह जोहार भेंट घरि आगे । प्रभुहि विलोर्काह प्रति अनुरागे । प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी | वचन विनीत कह कर जोरी ॥ १३५॥” अयोध्यावासियोने रामवनवासके पश्चात् भरतजीके अयोध्या आगमन 'पर भी इस शब्दका प्रयोग किया है
"पुरजन मिर्लाह न कहहिं कछु, गर्वाह जोहारीह जाहि । भरत कुसल पूछिन सर्काह, भय विषाद मन मांहि ॥ १५६ ॥ " इत्यादि प्रमाण पाए जाते है ।
आल्हाखडमे भी वीर क्षत्रिय तथा राजा लोग परस्परमे 'जुहार' द्वारा अभिवादन करते हुए पाए जाते है ।
'पद्मिनीहरण' अध्यायमे पृथ्वीराज और जयचदमे 'जुहार' शब्दका प्रयोग आया है
"आगे आगे चंद भाट भए पाछे चले पिथौरा राय । ' भारी बैठक कनउजियाकी भरमा भूत लगो दरबार ॥ जाइ पिथौरा दाखिल हो गए। दोउ राजनमें भई जुहार ॥ ४० ॥" माडीकी लडाईमे देखिए
"इक हरिकारा दौड़ति प्रायो । जा श्राल्हाको करो जुहार ॥" 'सिरसा समर' मे मलखानने धीरसीगसे जुहार की है
मलिखान ।
" सिंह कि बैठक क्षत्री बैठे। सबके बीच वीर साथी अपने ताहर छोड़े । श्रकिल गयो धीर सरदार ॥ करो जुहार जाय समुहे पर । ऊँची चौकी दई डराय । देखि पराक्रम नर मलिखेको धीरज मनमें गए सरमाय । करि जुहार धीरज तब चलिये । पहुँचे जहा वीर चौहान ॥"
इस प्रकार बहुतसे प्रमाण उपस्थित किए जा सकते है, जिनसे जुहार शब्दका व्यापक' प्रचार सार्वजनिक रूपसे होता हुआ ज्ञात होता है ।