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________________ कर्मसिद्धान्त २३५ प्रबुद्ध महामानव के पद पर प्रतिष्ठित करा उस पुण्य-मूर्तिके द्वारा सार्व . धर्मकी देशना बताई गई है । 1 इस प्रसंग में यह भी बता देना उचित जचता है कि साधु, उपाध्याय,आचार्य, अरिहन्त और सिद्ध इन पच परमेष्ठी नामसे पूज्य माने जानेवाले आत्माओंमें रत्नत्रयधर्मके विकासकी हीनाविकताकी अपेक्षा भिन्नता स्वीकार की जाती है। वीतरागताका विकास जिन-जिन आत्माओं में जितना - जितना होता जाता है, उतनी उतनी आत्मामें पूज्यता की वृद्धि होती जाती है । परिग्रहका त्याग किये बिना पूज्यताका प्रादुर्भाव नही होता । इस वीतराग दृष्टिके कारण ही जिनेन्द्र भगवान्की शान्त ध्यान -- मग्न मूर्तियोमे अस्त्र-शस्त्र, आभूषण आदिका अभाव पात है। इस सेम्बन्धमें कविवर भूधरदासजी कहते है "जो कुदेव लवि-हीन वसन भूषण अलावे । बरी सो भयभीत होय सो आयुध राखे ॥ तुम सुन्दर सर्वांग, शत्रु समरथ नहि कोई | भूषण, वसन, गदादि ग्रहण काहे को होई ॥ १६ ॥” - एकीभावस्तोत्र | इस प्रकार वस्त्राभूषण आदिरहित सर्वाग सुन्दर जिनेन्द्र मूर्तियो में कोई अन्तर नही मालूम होता । और, यथार्थमें देखा जाए तो कर्मोंका नाशकर, जो आत्मत्वका निर्माण होता है उसमें व्यक्तिगत नामधाम आदि उपाविया दूर हो जाती है । उनकी आराधनामे केवल उनके असाधारण गुणो पर ही दृष्टि जाती है । देखिये, एक मगल पद्यमें जैनाचार्य क्या कहते है "मोक्षमार्गस्य नेतार भत्तार कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ " यहा किसी व्यक्ति विशेषका नामोल्लेखकर प्रणामाञ्जलि अर्पित नही की गई है। किन्तु, यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि जो भी आत्मा मुक्ति
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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