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जनशासन
अरिहन्त भगवान् विश्व-कल्याण निमित्त अपनी अनेकान्तमयी वाणीके द्वारा उपदेश देते हुए मनुष्य, पशु-पक्षी, देव आदि सभी प्राणियों को परितृप्त करते है। ससार-समुद्रमें डूबते हुए जीवोको सन्तरणका मार्ग बतानेके कारण उन्हें तीर्थंकर कहा करते है। ऐसे ही महा महिमाशाली लोकोत्तर आत्माको लोक-भाषामें अवतार पुरुष कहते है। जैनधर्म में भगवद्गीताके अवतारवादका कोई सामञ्जस्य नही है। गीताकार बताते है कि, जब धर्मके प्रति ग्लानि उत्पन्न होती है और अधर्म की अभिवृद्धि होती है उस समय परमात्मा आकर उत्पन्न होते है। धर्मसस्थापन और पापके विनाशार्थ कृष्ण कहते है कि मै प्रत्येक युगमें पुन पुन. उत्पन्न होता हूँ। जैनशासन परमात्माको सासारिक जीवन धारण करनेकी बातको असभव जानता है। राग, द्वेष, मोह आदि विकारोसे अतीत वह परमात्मा क्यो आकर नीची अवस्थामे पहुँच मोहजालको रचता फिरेगा। आचार्य रविषेणने लिखा है कि “जब जगत में अनर्थ और पापका प्रवाह प्रचुर परिमाणमे बहने लगता है तब मानवसमाजमेसे ही कोई विशिष्ट व्यक्ति अपनी आत्माको विकसित कर तीर्थंकर परमात्मा बनता है और विश्वहितप्रद उपदेश दे प्राणियोका उद्धार करता है।" अवतारवादमे परमात्माको साधारण मानवके धरातलपर' उतारा जाता है, जब कि जैनदृष्टिमें साधारण मनुष्यको विकसित कर
१ “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥६॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । , धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥७॥"-गीता अ०४॥ २ "प्राचाराणां विघातेन कुदृष्टीनां च सम्पदा। धर्मग्लानिपरिप्राप्तमुच्छयन्ते जिनोत्तमाः॥"
चनपुराण २०६, सग ५॥