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जैनशासन मार्गका नेता है, कर्म-पर्वतका विनाश करनेवाला है और सम्पूर्ण विश्व-तत्त्वोका ज्ञाता है, उसे मै प्रणाम करता हूँ। पूजनका यथार्थ ध्येय। कोई लौकिक आकाक्षाकी तृप्ति नहीं है। साधक परमात्मपदसे कोई छोटी वस्तुको स्वीकार करनेके लिये तैयार नहीं है, अतएव वह स्पष्ट भाषामे'वन्दे तद्गुणलब्धय-उन गुणोकी प्राप्तिके लिये मै प्रणाम करता हूँकहकर अपनी गुणोपासनाकी दृष्टिको प्रकट करता है। ____ अरिहन्त, सिद्ध आदिकी वन्दनामे भी यह गुणोपासनाका भाव विद्यमान है।
"णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं।" आदि मत्र पढते समय जैन दृष्टि स्पष्टतया प्रकट होती है। कारण इसमे किसी व्यक्तिका उल्लेख न कर वीतराग-विज्ञानतासे अलकृत जो भी ' आत्मा हो, उन्हे प्रणाम किया है।
महाकवि धनञ्जयने लिखा है-भगवन्, जो आपकी स्तुति करते हुए आप अमुकके पिता अथवा अमुकके पुत्र हो यह कहकर आपकी महत्ता को बताते है और आपके कुलको कीर्तिमान् कहते है, वास्तवमे वे आपकी महत्ताको नहीं जानते। नाटक समयसारमे ही कहा है
"जिन पद नाहि शरीर को, जिन पद चेतन माहि ॥२८॥" कर्मबन्धनमे मुख्यता आत्माकी कषाय परिणतिकी रहा करती है। मलिन परिणामोसे जीव पाप-कर्मका सञ्चय अधिक करता है और विशुद्ध परिणामोसे वह पुण्य कर्मका अर्जन करता है। किन्ही लोगोने बन्धका कारण अज्ञान बताया और मुक्ति का कारण ज्ञानको माना है किन्तु, यह कथन आपत्तिपूर्ण है। मोह-रहित अल्प भी ज्ञान कर्मबन्धका छेदन करनेमे समर्थ हो जाता है। परमात्मप्रकाशमे योगीन्द्रदेव लिखते है. "वीरा वरग्गपरा थोवं पि हु सिक्खिऊण सिझंति।
ण हि सिज्झति विरगेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्थेसु ॥"