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समझमे आ सकता है, जब कोई इस बातको जान ले कि वास्तविकता मानवीय अज्ञानपूर्ण दृष्टिके परे है, जो सत्यको बुद्धिके अन्धकारपूर्ण कमरेमे ढूंढता फिरता है। बुद्धि तर्कसंगत विचारपद्धतिको वनाती है
और उसे ऐसा रूप देती है, जो यथार्थमे सत्यकी चिता (grave ) प्रमाणित होती है । सत्यके अवशेष, मतोके रूपमे, रहते हैं, जो पूजाके पात्र बनते है और जिनके द्वारा पुरोहिती-अपच और असहिष्णुता उत्पन्न होते हैं । आजके लौकिक-धर्मो ( Secular religions ) की इससे भिन्न स्थिति नहीं है, कारण यहा पुरोहिती-अपचके स्थानमे शासकीय-प्रपच आ जाता है और वह प्रोपेगेंडा-प्रचार द्वारा ही पनपता है। इस परिवर्तनशील ध्रौव्यतायुक्त तथा असख्य सम्बन्धोवाले विश्वमे अनेकात तत्त्वज्ञान अनुभवसे सत्य उतरता है। यदि इसका व्यवहारमें उपयोग किया जाय, तो उससे परस्पर विरोधी विश्वासोकी समाप्ति हो जायगी तथा मानव जातिको शाति और समताकी उपलब्धि होगी।
जैनविचार अत्यन्त प्राचीन है। आधुनिक ऐतिहासिक अनुसंधानने , जैनधर्मके हिन्दू या बुद्धधर्मकी शाखा होने की कल्पनाका मूलोच्छेद किया है। जीव-वलिदानके विरोधमे प्रवर्धन पाकर उसने क्षत्रियवर्ग-जिसका प्रतिनिधित्व जनक, महावीर और बुद्ध करते है-पर प्रभाव डाला । वह सभी प्रकारके क्रियाकाडों और पूजाके वाह्य आडम्बरोका विरोध करता है और अन्तर्दर्शन तथा आत्मोपलब्धि के मार्गकी प्रशसा करता है। इस प्रकार आज भी 'एरिस्टाटिल'द्वारा कल्पित 'नैतिक मनुष्य' (Ethical man) निर्माणकी आशा की जा सकती है और उसके सुयोग्य नागरिक बननेका भी विश्वास किया जा सकता है । सम्यग्दर्शन और स्याद्वादके सिद्धात औद्योगिक-पद्धति द्वारा प्रस्तुत की गई जटिल समस्याओको सुलझाने में अत्यधिक कार्यकारी होगे। सामाजिक शातिकी, सारा विश्व, आकाक्षा करता है। जो विचार-विनिमय, चर्चा-वार्ता तथा समझौता सदृश शात उपायो द्वारा प्राप्य है। एतदर्थ सभी हिंसा और