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ही वास्तविक है, न कि मस्तिष्कगत क्रियाका विषय । इस भावना सहित एव अनुप्राणित कार्योमे उन नैतिक विशेषताओका समावेश है, जिनसे व्यक्तित्व उन्नत बनता है । तैत्तिरीय उपनिषद्के 'ब्रह्मानद-वल्ली' में जो विज्ञान पुरुषका वर्णन है उसमें यही भाव है। उसे इन शब्दो द्वारा व्यक्त किया गया है-तस्य श्रद्धव शिर, ऋतं दक्षिणपक्ष , सत्यम् उत्तर पक्ष, योग आत्मा, महः पुच्छम् प्रतिष्ठा" । जैन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित रत्नत्रय, न्याय और स्वतंत्रताका वास्तविक मार्ग है, न कि राजनैतिक सत्ता, जो प्रजातत्र अथवा साम्यवाद सदृश्य लौकिक धर्मके नामपर आधुनिक जगत्मे प्रचार पा रही है। __ मानव जीवनकी समस्याका सम्यक् अवबोध जीव, अजीव, आस्रव, वध, सवर, निर्जरा तथा मोक्ष द्वारा होता है । चतन्यपुञ्ज जीव 'शरीररूपी जर्जर पोत द्वारा अज्ञानके - विशाल तथा अपार महासागरमें अपनी जीवनयात्रा करता है । इद्रियोके द्वारसे आत्मामे अहकार, स्वार्थ, जीवनाकांक्षा एव सत्ताकी लालसाके कारण निष्क्रिय ( Inert ) ज्ञानहीन द्रव्यका आस्रव होता है। अत नाविकका यह प्रयत्न होना चाहिये कि इस सम्पूर्ण आस्रवसे नौकाको बचाते हुए उसकी डूबनेसे रक्षा करे। प्रत्येक व्यक्तिको इसी अनुशासनके सीखनेकी आवश्यकता है। यह आधुनिक सामाजिक विचारधारासे भिन्न है, जो नवीन समाजव्यवस्थाके निर्माणमे व्यक्तिको विस्मृत करता है।
जैनाचार्योकी यह वृत्ति अभिवन्दनीय है कि उन्होंने ईश्वरीयआलोक ( Revelation) के नामपर अपने उपदेशोमे ही सत्यका एकाधिकार नही बताया। इसके फलस्वरूप उन्होने साम्प्रदायिकता और धर्मान्धताके दुर्गुणोको दूर कर दिया, जिनके कारण मानव-इतिहास भयकर द्वद और रक्तपातके द्वारा कलकित हुआ है। अनेकातवाद अथवा स्याद्वाद विश्वके दर्शनोमे अद्वितीय है। इसकी आलोचना अस्पष्ट और परस्पर-विरोधी कहकर की जाती है ।। स्याद्वाद उस समय ठीक तरहसे