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विचारधाराए इस प्रकारके वाक्योमे-'मा हिस्यात् सर्वभूतानि " " सर्व मेधे सर्व हन्यात् " - पाई जाती है । अहिंसा के प्रवर्तक उस विचारधाराके प्रमुख नेता थे, जिसकी पूर्णता आत्म-विद्यामे है, जो आनन्दप्रचुर स्वर्गकी उपलब्धिकी अपेक्षा श्रात्मत्वकी प्राप्तिको श्रेष्ठ बताती थी ।
जैनधर्मकी प्रमुख शिक्षा, रत्नत्रय रूपसे प्रख्यात, मुक्तिका मार्ग है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको रत्नत्रय कहते है- "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग " पूर्णताकी उपलब्धिके लिए इन तीनोके पार्थक्यके बदले इस त्रयीकी सयुक्त अवस्था आवश्यक है । सरल शब्दो में कहा जा सकता है, कि यहा "हृदय, मस्तक और हस्त के ऐवय और सहयोगपर जोर दिया गया है। आधुनिक मानव, बुद्धिको अनावश्यक महत्त्व देता हुआ इस त्रयीके प्रथम तत्त्व सम्यग्दर्शन ( Right Belief) को, विस्मृत करता है ।
सम्यग्दर्शन है क्या ? जब बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है, तब श्रद्धाका उदय होता है । मानवकी प्रमुख समस्या है "मैं कौन हूँ ?" ज्ञानकी क्रियाशीलताकी प्राथमिक आवश्यकता आत्मा तथा अनात्माका विश्लेषण करना है । बुद्धि आत्माको शरीरसे जानती है और यत. एक शरीर दूसरेसे भिन्न है, तत एक शरीरस्थ आत्मा दूसरे शरीरस्थ आत्मासे पृथक् होनी चाहिये । " वह स्व में विश्वैक्यका दर्शन करता है, किंतु अनुभव प्रमाणित करता है, कि इस ऐक्यका सपर्क अन्य एकताओके साथ है । वह 'एक सद्वितीय है, "एकमेव अद्वितीय " नही । वह इस प्रकारका ऐक्य है, जिसमें विभिन्न ऐक्य विलीन हो जाते हैं और वही वास्तत्रिक आत्मा है । यह आत्मा इद्रियातीत होनेसे दृश्य नही है । चैतन्यमें उसकी अवस्थितिकी अनुभूति केवल नैतिक जीवनमें प्राप्त होती है। इस नैतिक जीवनकी आधार भूमि परोपकार, सहानुभूति दान तथा करुणा सदृश सद्वृत्तिया है, जो अत करणमें अवस्थित रहती हैं । इसीलिये आत्माको हृदयस्थ माना है। सम्यग्दर्शनका भाव यह है कि हृदय द्वारा अनुभूत आम
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