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________________ अवस्थित है कि कार्यकारण भावका ह्य वह, नियम, जो प्रकृतिकी प्रसुप्त शक्तियो तथा मनुष्यके वाहय जीवनको परिचालित- करता है, मानव-मनपर भी उसी प्रकार लागू होता है । एक तीसरी दृष्टि और है जो व्यक्तिको पूर्णतया आत्मवोध युक्त तथा स्व-सहाय (Self determined) जीवधारी मानती है, जिसने विकासके लवे मार्गको तय करते हुए नरदेहको प्राप्त किया है और जिसको अपने प्रयत्नोके द्वारा अपनी पूर्णताको प्राप्त करना है। यह दृष्टि अतीव प्राचीनकालसे जैन आचार्यों द्वारा प्रस्तुत की गई थी। उनके सिद्धातानुसार मनुष्य न तो पूर्णतया आध्यात्मिक है और न जड़ ही, किन्तु उन दोनोका संयोग (Compound) है। और उसकी उन्नति, कार्य कारणके नियम द्वारा लादे गए वधनसे उन्मुक्त हो, पूर्ण स्वातत्र्यकी उपलब्धि रही है। इस दृप्टिसे वह अपना जीवन-मार्ग निर्धारण करनेमे स्वतत्र है तथा वह स्वयं अपने अपने कार्योके फल भोगनेका उत्तरदायी मी है । कृतिका प्रारभिक ध्येय धन और शक्ति सबधी सासारिक वासनाओकी पूर्ति है, जो उसे आक्रमणात्मक तथा हानिप्रद कार्यों अर्थात हिंसाकी ओर प्रेरित करते हैं। मानव चितनाके इतिहासमे जैनाचार्यो ने अहिंसा सिद्धातपर सर्वप्रथम प्रकाश डाला। उसे लोगोने अधिक भ्रमपूर्ण समंझ रखा है । विद्वान् लेखकने इस पुस्तकमे समझाया है कि अहिंसाका भाव राग-द्वेष आदि प्रमुख दुर्भावोपर विजय प्राप्त करना है। ऐसा दिखता है कि यह उपदेश वैदिकी जीव-बलिके प्रतिवादमे । दिया गया । स्थूल रूपमे उस विरोधका अभिप्राय यह है, "तू दूसरोके उत्पीडनपर अपने सुखका निर्माण' न कर।" (Thou shalt not build thy happiness on the misery of another) आज जिसे शोषण-नीति (Exploitation)के नामसे कहते है उसके विरोध सर्वप्रथम यह तर्कपूर्ण उद्घोष था। वैदिक साहित्यमे उभय प्रकारकी
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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