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भौतिकवादके जनक वृहस्पति और चात्र कि द्वारा प्रस्थापित पूर्णतया ऐहिक है और दूसरी पूर्णतया पारलौकिक है, जिसका उपदेश विश्वके सभी प्रमुख धर्मोने दिया है, जो ईश्वर-स्वर्ग तथा नरकपर जोर देते है। आद्य दृष्टि मनुष्यमे आत्माके अभावपर अवस्थित है, इसलिए मानव अस्तित्वका लक्ष्य व्यक्तिगत आत्माका विकास न होकर समस्त मानव समाजका सामूहिक अभ्युदय है । यह मनुष्यके पदको यूथचारी चीटियो एव मक्षिकाओ सदृश आकता है और इस तत्त्वको विस्मृत कर देता है कि मानव ऐसे आत्मवोधसपन्न है, जिसके द्वारा व्यक्तित्वकी भावनाका निर्माण होता है । इस प्रकार व्यक्ति अपनी इच्छा-शक्तिसमन्वित नैतिक- प्राणी नही रह पाता, किंतु वह राज्य नामधारी कृत्रिम महत्त्वाकाक्षा और स्वार्थी राजनैतिक शक्तिका दास बन जाता है । तब मनुष्य निर्मित नियम ही उसका धर्म वन जाता है, जिसका सरक्षण पुलिस शक्ति द्वारा होता है और जिसकी परिपालनामें प्रेरक इस जगत् में प्रदान की जानेवाली डकी भीति ही है । इस प्रकार उसका ससार, प्राणिमात्रमे मनुष्यको समुन्नत और पवित्र वनाने वाले सकल सद्गुणोस शून्य वन जाता है ।
इसके विपरीत विश्व के प्रमुख धर्म पुनर्जन्ममें विश्वास करते है और ससारको विनाशी तथा मायावी मानते है । अत ये ईश्वरकी इच्छापूतिका उपदेश देते हैं, जिससे मनुष्य स्वर्ग में महत्वपूर्ण स्थान को पा अपने जनक परमात्मा के निरंतर गुणगान करता रहे । इस प्रसगमे भी नारकीय व्यथाकी भीति उन कार्योंकी ओर प्रेरित करती है, जो पूर्णतया बाह्य आडम्बर युक्त है और जो स्वय ईश्वरीय प्रसादप्राप्ति में पर्याप्त साधन नही समझे जाते ।
इन दोनो विचारधाराओके अनुसार व्यक्तिपर किसी न किसी वाह्य शक्तिका शासन तथा शारीरिक दड-प्राप्तिकी भीतिवश बलात् आज्ञापालन आवश्यक वन जाते हैं । यह स्पष्टतया इस सिद्धांतपर