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कर्मसिद्धान्त
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है। अनुकूल साधन भी है। फिर भी वह अपनी मनोभावनाको पूर्ण नहीं कर पाता। क्योकि अन्तराय नामका कर्म दान, लाभ आदिमे विघ्न उपस्थित कर देता है। दातारने किसी व्यक्तिकी दीन अवस्था देख दयासे द्रवित हो अपने भण्डारीको दान देनेका आदेश दे दिया; फिर भी, भण्डारी कोई-न-कोई विघ्न उपस्थित कर देता है, जिससे दाता के दानमे और याचकके लाभमें विघ्न आ जाता है। इस अन्तराय कर्मका कार्य सदा बने-बनाये खेलको बिगाड, रगमे भग कर देने का रहा करता है। हर एक प्रकारके वैभव और विभूतिके मध्यमे रहते हुए भी यदि भोगान्तराय, उपभोगान्तरायका उदय हो जाए तो 'पानीमे भी मीन पियासी' जैसी विचित्र स्थिति शारीरिक अवस्था आदिके कारण उत्पन्न हो सकती है। ___इन आठ कर्मोमे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय को घातिया कर्म कहते है, क्योकि ये आत्माके गुणोका घातकर जीवको पगु बनाया करते हैं । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रको अघातिया कहते है क्योकि ये आत्माके गुणोको क्षति नहीं पहुंचाते। हा,अपने स्वामी मोहनीयके नेतृत्वमे ये जीवको परतन्त्र बना सच्चिदानन्दकी प्राप्तिमे वाधक अवश्य बनते है।
इन कर्मोम ज्ञान, दर्शन आदि आत्मगुणोके घात करनेकी प्रकृतिस्वभाव प्राप्त होनेको प्रकृतिबन्ध कहते है । कमांके फलदानकी कालमर्यादाको स्थितिबन्ध कहा है। कार्माग वर्गणाओके पुजम ज्ञानावरण आदि रूप विविध कर्म-शक्तिके परमाणुओका पृथक्-पृथक् विभाजन प्रदेशबन्ध है। और, गृहीत कर्म-पुञ्जमें फल-दान शक्ति-विपाक प्राप्ति को अनुभाग-बन्ध कहते है। इन कर्मोके अनन्त भेद है। स्थूल रूपसे १४८ भेदोका जिन्हे कर्म-प्रकृति कहते है, वर्णन किया जाता है। इस रचनामे स्थान न होनेसे इनके विशेष भेदोका वर्णन करने में हम असमर्थ है। विशेष जिज्ञासुओको गोम्मटसार कर्मकाण्ड शास्त्रका अभ्यास करनेका