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अनुरोध है । 'आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीों ने कर्मोकी बन्ध उत्कर्षण, अपकर्षण, सक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशम, सत्त्व, निघत्ति और निकाचना रूप दस अवस्थाएं बताई है । मन, वचन, कायकी चचलतासे कर्मोका आकर्षण होता है । पश्चात् वे आत्माके साथ बंध जाते है । इसके अनन्तर अपनी अनुकूल सामग्रीके उपस्थित होनेपर वे कर्म अपना फलदान - रूप कार्य करते है, इसे उदय कहते है । कर्मोके सद्भावको सत्त्व कहा है। आत्मनिर्मलताके द्वारा कर्मोको उपशान्त करना उपशम है। भावोके द्वारा कर्मोकी स्थिति, रसदान शक्तिमे वृद्धि करना उत्कर्षण और उसम हीनता करना अपकर्षण है । तपश्चर्या अथवा अन्य साधनोसे अपनी मर्यादाके पहिले ही कर्मोको उदयावलीमे लाकर उनका क्षय करना उदीरणा है । कर्मोकी प्रकृतियोका एक उपभेदसे अन्या उपभेद रूप परिवर्तन करनेको सक्रमण कहते हैं । उदीरणा और सक्रमण रहित अवस्थाको निधत्ति कहते है । जिसमे उदीरणा, सक्रमणके सिवाय उत्कर्षण और अपकर्षण भी न हो, ऐसी अवस्थाको निकाचना कहते है ।
जनशासन
इससे यह बात विदित होती है कि जीवके भावोमे निर्मलता अथवा मलिनताकी तरतमताके अनुसार कर्मोके बन्ध आदिमे हीनाधिकता हो जाती है । विलम्बसे उदयमे आनेवाले और अधिक काल तक रस देनेवाले कर्मोको असमयमे भी उदयमें लाया जा सकता है। कभी-कभी योगबलके जाग्रत् होनेपर, कर्मोकी राशि, जो सागरो - अपरिमित कालपर्यन्त अपना फल चखाती, वह ४८ मिनिट - २ घडीके भीतर ही नष्ट की जा सकती है। अन्य सम्प्रदायोकी कर्मके विषयमें यह धारणा है - 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म' - बिना फल भोगे कर्मका क्षय नही होता।' पर जैनशासनमे सर्वत्र इस बातका समर्थन नही किया जा सकता । निकाचना और नित्ति अवस्थाको प्राप्त कर कर्म अवश्य अपने समयपर फल देगे ।
१ गोम्मटसार गाथा ४३६-४४० ।