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जनशासन
निम्नलिखित सूत्रसे सरलतापूर्वक स्पष्ट हो जाता है-"प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्" (५।१६)।
जिस प्रकार कुम्भकार मृत्तिका आदिको छोटे बडे घट आदिके रूपमें परिणत कर दिया करता है उसी प्रकार छोटे बड़े भेदोसे विमुक्त इस जीवको गोत्र-कर्म कभी तो उच्च कुलमे जन्म धारण कराता है, कभी हीनसस्कार, दूषित आचार-विचार एव हीन परम्परावाले कुलोमे उत्पन्न कराता है। सदाचारके आधारपर उच्चता और कुलीनता अथवा अकुलीनता और नीचताके व्यवहारका कारण उच्च-नीच गोत्र कर्मका उदय है। आज वर्णव्यवस्था सम्वन्धी उच्चता-नीचता पौराणिकोकी मान्यता मानी जाती है, किन्तु जैन-शासनमे उसे गोत्र कर्मका कार्य बताया है। पवित्र कार्योके करनेसे तथा निरभिमान वृत्तिके द्वारा यह जीव उच्च सस्कारसम्पन्न वशपरम्पराको प्राप्त करता है। शिक्षा, वस्त्र, वेष-भूषा आदिके आधारपर सस्कार तथा चरित्र-हीन नीच व्यक्ति शरीरपरिवर्तन हुए बिना उच्च गोत्रवाले नही बन सकते, क्योकि उच्च गोत्रके उदयके लिए उच्च सस्कारपरम्परामें उत्पन्न शरीरको नोकर्म माना है।
जीव बहुत कुछ सोचता है। बडे-बडे कार्य करनेके मनसूबे भी बाधता
from its being limited by the body it would follow that the soul like the body is also impermanent and if impermanent it would have no final release
The Jains answer these objections by citing analogies As a lamp whether placed in a small pot or a large room illumines the whole space, even so does the Jiva contract and expand according to the dimensions of the different bodies," __-Indian Philosophy, p_811, Sir Radhakrishnan.
१ गो० क० गा०५४॥