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जैनशासन
जीवमे वर्ण ५, रस ५, गन्ध २ और स्पर्श ८-ये २० गुण तात्त्विक दृप्टिसे नही पाये जाते इसलिये उसे अमूर्तिक कहते हैं। व्यवहार नयसे ( From practical stand-point ) वन्धकी अपेक्षा उसे मूर्तिक कहा है।
प्रवचनसार मे स्वामी कुन्दकुन्दने इस विषय मे एक बडी मार्मिक वात लिखी है
"रूवादिहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि ।
दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणोहि ॥"-२२२८ । जैसे रूपादिरहित आत्मा रूपी द्रव्यो और उनके गुणोको जानता है, देखता है अर्थात् रूपी तथा अरूपीका ज्ञाता-ज्ञेय सम्वन्ध होता है,उसी प्रकार रूपादिरहित जीव भी रूपी कर्म-पुद्गलोसे वाधा जाता है। यदि यह न माना जाए तो अमूर्त आत्मा द्वारा मूर्त पदार्थोका जानना, देखना भी नही बनेगा।
जब जीव और कर्मका सम्बन्ध प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है और सादि सम्बन्ध आगम, तर्क तथा अनुभवसे वाधित है, तव अनादिसम्बन्ध स्वीकार करना न्याय-सगत होगा। वस्तुका स्वभाव तर्कके परे रहता है। जैसे, अग्निकी उष्णता तर्कका विषय नही है। अग्नि क्यो उष्ण है, इस शकाके उत्तरमे यही कहना होगा-'स्वभावोऽतर्कगोचरः' जो इसे न माने उन्हें पञ्चाध्यायीकार स्पर्णन इन्द्रिय द्वारा अनुभव करनेकी सलाह
देते हुए सुझाते है-'नो चेत् स्पर्शेन स्पृश्यताम् । ' जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है और यदि आत्माने कर्मका
उच्छेद करनेके लिये साधना-पथमे प्रवृत्ति न की तो किन्ही-किन्हीका वह कर्म बन्धन सान्त न हो अनन्त रहेगा। अनन्त-अनादिके विषयमे जिन्हें एक झलक लेनी हो वे महाकवि बनारसीदासजीके निम्नलिखित चित्रणको ध्यान से देखे और उसके प्रकाशमे अनादि सम्बन्धको भी कल्पना द्वारा जाननेका प्रयत्न करे