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कर्मसिद्धान्त
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जव कर्म - पुञ्ज ( Karmic molecules ) स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णयुक्त होनेके कारण पौद्गलिक हैं और आत्मा उपर्युक्त गुणोसे शून्य चैतन्य ज्योतिमय है, तव अमूर्ति आत्माका मूर्तिमान कर्मोसे कैसे बन्ध होता है ? मूर्तिक-मूर्तिकका बन्ध तो उचित है, अमूर्तिकका मूर्तिमानसे वन्ध होना मानना आश्चर्य-प्रद है ?
इस शकाका समाधान करते हुए आचार्य कलंकदेव तत्त्वार्थराज - वार्तिक ( पृ० ८१ अ० २ सूत्र ७) मे लिखते है, - "अनादिकालीन कर्मकी बन्ध परम्परा के कारण पराधीन आत्माके अमूर्तिकत्वके सम्वन्धमे एकान्त नही है । वन्ध पर्यायके प्रति एकत्व होने से आत्मा कथञ्चित् मूर्तिक है और अपने ज्ञानादिक लक्षणका परित्याग न करनेके कारण कथञ्चित् अमूर्तिक भी है । मद, मोह तथा भ्रमको उत्पन्न करने वाली मदिराको पीकर मनुष्य काष्ठकी भाति निश्चल स्मृति शून्य हो जाता है तथा कर्मेन्द्रियोके मदिराके द्वारा अभिभूत होने से जीवके ज्ञानादि लक्षणका प्रकाश नही होता। इसलिये आत्माको मूर्तिमान निश्चय करना पडता है ।"
यदि ऐसा है तो कर्मोदय- मद्यके आवेशसे वशीकृत आत्माका अस्तित्व कैसे ज्ञात होगा ? यह कोई दोष नही है । कारण, कर्मोदयादिके आवेग होने पर भी आत्माके निज लक्षणकी उपलब्धि होती है ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त - चक्रवर्ती का कथन है
"वण्ण-रस-पच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीव । णो संति प्रमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो ।"
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- द्रव्यसंग्रह
अमूर्ति प्रत्य
१ "अनादि कर्मबन्धसन्तानपरतन्त्रस्यात्मन' ने कान्तः । बन्धपर्यायं प्रत्येकत्वात् स्यान्मूतं तथापि ज्ञानादिस्वलक्षणापरित्यागात् स्यादमूर्तिः ।... मदमोह - विभुमकरों सुरा पीत्वा नष्टस्मृतिर्जनः काष्ठवदपरिस्पन्द उपलभ्यते, तथा कर्मेन्द्रियाभिभवादात्मा नाविभूतस्वलक्षणो मूर्त इति निश्चीयते ।"