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जैनशासन
माननेका स्पष्ट भाव यह है कि पहिले आत्मा कर्मवन्धनसे पूर्णतया शून्य था, उसमे अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति आदि गुण पूर्णतया विकसित थे। वह निजानन्द रसमे लीन था। ऐसा आत्मा किस प्रकार और क्यो कर्म-बन्धनको स्वीकार कर अपनी दुर्गतिके लिये स्वय अपनी चिता रचनेका प्रयत्न करेगा? आत्मा मोही, अज्ञानी, अविवेकी और असमर्थ होता तो बात दूसरी थी। यहा तो शुद्धात्माको अशुद्ध वननेके लिए कौनसी विकारी शक्ति प्रेरणा कर सकती है? शुद्ध सुवर्ण पुन. किट्टकालिमाको जैसे अगीकार नही करता, अथवा जैसे छिलका निकाला गया चावलपुन धान रूप अशुद्ध स्थितिको प्राप्त नही करता, उसी प्रकार परिशुद्ध-आत्मा अत्यन्त घृणित शरीरको धारण करनेका कदापि विचार नहीं करेगा। इस प्रकार शुद्ध आत्माको अशुद्ध बनना जब असम्भव है, तव गत्यन्तराभावात् अनादिसे उसे कर्म-बधन युक्त स्वीकार करना होगा, कारण यह बन्धनकी अवस्था हमारे अनुभवगोचर है।
कर्मोके विपाकसे यह आत्मा विविध प्रकारके वेप धारणकर विश्वके रगमच पर आ हास्य, शोक, शृगार आदि रसमय खेल दिखाता फिरता है पर जब कभी भूले-भटके जिनेन्द्र-मुद्राको धारणकर शान्त-रसका अभिनय करने आता है तो आत्मा की अनन्तनिधि अर्पण करते हुए कर्म इसके पाससे विदा हो जाते है। ___ जिस कर्मने आत्माको पराधीन किया है वह साख्यकी प्रकृति के समान अमूर्तिक नहीं है। कर्मका फल मूर्तिमान पदार्थके सम्बन्धसे अनुभवमें आता है, इसलिये वह मूर्तिक है। यह स्वीकार करना तर्क-सगत है। जैसे चूहेके काटनेसे शरीरमे उत्पन्न हुआ शोथ आदि विकार देख उस विषको मूर्तिमान स्वीकार करते है, उसी तरह पुष्प, मणि, स्त्री आदिके निमित्तसे सुखका तथा सर्प, सिंह, विष आदिके निमित्तसे दुखरूप कर्मफलका अनुभव करता है। इसलिये यह कर्म अनुमान द्वारा मूर्तिमान सिद्ध होता है।