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कर्मसिद्धान्त
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युक्ति द्वारा समझाते है-"ससारी जीव वधा हुआ है क्योकि यह परतत्र है। जैसे आलान-स्तम्भमे प्राप्त हाथी परतत्र होनेके कारण वधा हुआ है। यह जीव परतत्र है क्योकि इसने हीन स्थानको ग्रहण किया है। जैसे कामके वेगसे पराधीन कोई श्रोत्रिय ब्राह्मण वेश्याके घरको स्वीकार करता है। जिस हीन स्थानको इस जीवने ग्रहण किया है, वह शरीर है। उसे ग्रहण करने वाला ससारी जीव प्रसिद्ध है। यह शरीर हीन स्थान कैसे कहा गया? शरीर हीन स्थान है, क्योकि वह आत्माके लिए दुखका कारण है। जैसे किसी व्यक्तिको जेल दु ख का कारण होनेसे वह जेलको हीन स्थान समझता है।" विद्यानन्दि स्वामीका भाव यह है कि इस पीडाप्रद 'मलबीज मलयोनिम्' शरीरको धारण करनेवाला जीव कर्मोके अधीन नही तो क्या है? कौन समर्थ ज्ञानवान व्यक्ति इस सप्त धातुमय निन्द्य शरीरमें वन्दी वनना पसद करता है। यह तो कर्मोका आतक है कि जीवकी यह अवस्था हो गई है, जिसे दौलतरामजी अपने पदमें इस मधुरताके साथ गाते है
"अपनी सुध भूल आप, आप दुख उपायौ। ज्यौं शुक नभ चाल बिसरि, नलिनी लटकायौ ॥ चेतन अविरुद्ध शुद्ध दरश बोध मय विसुद्ध । तज, जड़ रस फरस रूप पुद्गल अपनायौ । चाह-दाह दाहै, त्यागै न ताहि चाहै। समता-सुधा न गाहै, जिन निकट जो बतायौ ॥" जब यह जीव कर्मोके अधीन सिद्ध हो चुका तव उसकी पराधीनता या तो अनादि होगी जैसा कि ऊपर बताया गया है अथवा उसे सादि मानना होगा। अनादि पक्षको न माननेवाले देखें कि सादि मानना कितनी विकट समस्या उपस्थित कर देता है। कर्म-वन्धनको सादि
१ प्राप्तपरीक्षा पृ० १॥