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जैनशासन सम्बन्धवाला है। बीज और वृक्षके सम्बन्धपर दृष्टि डाले तो परम्पराकी दृष्टिसे उनका कार्यकारणभाव अनादि होगा। जैसे अपने सामने लगे हुए नीमके वृक्षका कारण हम उसके वीजको कहेगे। यदि हमारी दृष्टि अपने नीमके झाट तक ही सीमित है तो हम उसे वीजसे उत्पन्न कह सादिसम्बन्ध सूचित करेंगे। किन्तु इस वृक्षके उत्पादक वीजके जनक अन्य वृक्ष और उसके कारण अन्य वीज आदिकी परम्परापर दृष्टि डाले तो इस अपेक्षासे इस सम्बन्ध को अनादि मानना होगा। किन्ही दार्गनिकोको यह भ्रम हो गया है कि जो अनादि है, उसे अनन्न होना ही चाहिये। वस्तुस्थिति ऐसी नही है अनादि वस्तु अनन्त हो, न भी हो; यदि विरोधी कारण आ जावे तो अनादिकालीन सम्बन्ध की भी जड उखाडी जा सकती है। तत्त्वार्थसारमे लिखा है
"दग्धे बीजे यथात्यन्त प्रादुर्भवति नाकुरः। कर्मवीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुर.॥"
-श्लोक ७, पृ० ५८ । जैसे वीजके जल जाने पर पुन नवीन वृक्षमे निमित्त वनने वाला ‘अकुर नही उत्पन्न होता, उसी प्रकार कर्मवीजके भस्म होने पर भवाकुर उत्पन्न नहीं होता।
आत्मा और कर्मका अनादि सम्बन्ध मानना तर्कसिद्ध है। यदि सादिसम्बन्ध माने तो अनेक आपत्तिया उपस्थित होगी। इस विषय में निम्न प्रकार का विचार करना उचित होता है।
आत्मा कर्मोके अधीन है, इसीलिये कोई दरिद्र और कोई श्रीमान् पाया जाता है। पंचाध्यायीमे कहा है"एको दरिद्र एको हि श्रीमानिति च कर्मणः"
___-उत्त० श्लो० ५०। ससारी आत्मा कर्माके अधीन है, यह प्रत्यक्ष अनुभवमे आता है। फिर भी तर्कप्रेमियोको विद्यानन्दि स्वामी आप्तपरीक्षामे इस प्रकार