SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मसिद्धान्त २१५. धूलिका सम्बन्ध होता है। यदि ऐसा न हो, तो वही व्यक्ति जब विना तैल लगाये पूर्वोक्त गस्त्र सचालन कार्य करता है-तब उस समय वह धूलि शरीरमे क्यो नहीं लिप्त होती? इसी प्रकार राग-द्वेषरूपी तैलसे लिप्त आत्मा मे कर्म-रज आकर चिपकती है और आत्माको इतना मलीन वना पराधीन कर देती है कि अनन्तगक्तिसम्पन्न आत्मा क्रीतदासके समान कर्मोके इशारेपर नाचा करता है। इस कर्मका और आत्माका कबसे सम्बन्ध है ? यह प्रश्न उत्पन्न होता है। इसके उत्तरमे आचार्य कहते है कि-कर्मसन्तति-परम्पराकी अपेक्षा यह सम्बन्ध अनादिसे है। जिस प्रकार खानिसे निकाला गया सुवर्ण किट्टकालिमादिविकृतिसम्पन्न पाया जाता है, पश्चात् अग्नि तथा रासायनिक द्रव्योके निमित्तसे विकृति दूर होकर शुद्ध सुवर्णकी उपलब्धि होती है, उसी प्रकार अनादिसे यह आत्मा कर्मोकी विकृतिसे मलीन हो भिन्न-भिन्न योनियोमे पर्यटन करता फिरता है। तपश्चर्या, आत्म-श्रद्धा, आत्म-वोधके द्वारा मलिनताका नाग होनेपर यही आत्मा परमात्मा वन जाता है। जो जीव आत्म-साधनाके मार्गमे नही चलता, वह प्रगति-हीन जीव सदा दुखोका भार उठाया करता है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने कितना सुन्दर उदाहरण देकर इस विषयको समझाया है "जह भारवहो पुरिसो वहइ भरं गेहिऊण कावडियं । एमेव बहइ जीवो कम्मभरं कायकावडियं ॥२०१॥" गोम्मटसार-जीवकाण्ड। जिस प्रकार एक वोझा ढोनेवाला व्यक्ति कावडको लेकर वोझा ढोता है, उसी प्रकार यह ससारी जीव गरीररूपी कावड़ द्वारा कर्मभारको ढोता है। यह कर्मवन्धन पर्यायकी दृष्टि से अनादि नहीं है। तत्त्वार्थसूत्रकारने "अनादि सम्बन्धे च" (२०४१) सूत्र द्वारा यह बता दिया है कि कर्मसन्ततिकी अपेक्षा अनादि सम्बन्ध होते हुए भी पर्यायकी दृष्टिसे वह सादि
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy