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जैनशासन
"जो पुण संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसुगदी ॥
मिस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहि दु विसयग्गहण तत्तो रागो य दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इति जिणवरेंहि भणिदो श्रणादिणिधणो सणिधणो वा ॥ "
- १२८-१३० । जो ससारी जीव है वह राग, द्वेष आदि भावो को उत्पन्न करता हैं, जिनसे कर्म आते हैं और कर्मोसे मनुष्य, पशु आदि गतियो की उत्पत्ति होती हैं । गतियोमे जाने पर शरीर की प्राप्ति होती है। शरीरसे इन्द्रिया उत्पन्न होती है । इन्द्रियोद्वारा विषयो का ग्रहण होता है जिससे राग और द्वेष होते है । इस प्रकारका भाव ससारचक्रमे भ्रमण करते हुए जीवके सन्ततिकी अपेक्षा अनादि-अनन्त और पर्याय की दृष्टि से सान्त भी होता है, ऐसा जिनेद्भदेवने कहा है । "
इस विवेचनसे यह स्पष्ट होता है कि यह कर्म चक्र राग-द्वेषके निमित्तसे सतत चलता रहता है और जब तक राग, द्वेष, मोहके वेगमे न्यूनता न होगी तब तक यह चक्र अबाधित गति से चलता रहेगा। रागद्वेषके विना जीवकी क्रियाएँ बन्धन का कारण नही होती। इस विषयको कुन्दकुन्द स्वामी समयप्राभृतमे समझाते हुए लिखते है कि कोई व्यक्ति अपने शरीरको तैलसे लिप्तकर धूलिपूर्ण स्थानमें जाकर शस्त्र - सचालन रूप व्यायाम करता है और ताड, केला, बास आदिके वृक्षोका छेदनभेदन भी करता है । उस समय धूलि उडकर उसके शरीर मे चिपट जाती है । यथार्थमे देखा जाए तो उस व्यक्तिका शस्त्र सचालन शरीरमे धूलि चिपकने का कारण नही है। वास्तविक कारण तो तैलका लेप है, जिससे
१ समयसार गा० २४२-२४६ ।