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कर्मसिद्धान्त
२२१ "अनन्तता कहा ताको विचारअनंतताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखाइयतु है, जैसे-वट वृक्षको बीज एक हाथ विर्ष लीज, ताको विचार दीर्घ दृष्टि सौं कीजै तो वा वटके वीज विर्ष एक वटको वृक्ष है, सो वृक्ष जैसो कछु भाविकाल होनहार है तैसो विस्तार लिये विद्यमान वाम वास्तव रूप छतो है, अनेक शाखा प्रशाखा पत्र पुष्प फल संयुक्त है, फल फल विष अनेक बीज होहिं। या भांतिकी अवस्था एक वटके बीज विष विचारिये । और भी सूक्ष्म दृष्टि दीजं तो जे जे वा वट वृक्ष विष बीज है ते ते अन्तर्गभित वट वृक्ष सयुक्त होहिं । याही भांति एक वट विष अनेक अनेक बीज, एक एक वीज विर्ष एक एक वट, ताको विचार कीजै तौ भाविनय प्रधान करि न वटवृक्षनि की मर्यादा पाइए न बोजनि को मर्यादा पाइए। याही भांति अनन्तताको स्वरूप जाननौ । ता अनंतताके स्वरूपको केवलज्ञानी पुरुष भी अनन्त ही देखे जाणे कहै-अनन्तका और अंत है ही नाही जो ज्ञान विष भास। तात अनन्तता अनंत ही रूप प्रतिभास या भांति आगम अध्यातमको अनंतता जाननी।" ।
-बनारसीविलास पृ० २१६ । स्वामी समन्तभद्र आप्तमीमासा (श्लो० ६६) मे इस प्रकार कर्मके विषयमे प्रकाश डालते है__"कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः।
तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जोवास्ते शुद्धयशुद्धितः ॥" कामादिकी उत्पत्ति रूप जो विविधतामय भाव ससार है, वह अपने अपने कर्मबन्धनके अनुसार होता है । वह कर्म रागादि कारणोसे उत्पन्न होता है। वे जीव शुद्धता और अशुद्धतासे समन्वित होते है। ___ इस विषयमें टीकाकार आचार्य विद्यानन्दि अष्टसहस्रीमें लिखते हैं कि-"अज्ञान, मोह, अहंकार रूप जो भाव ससार है, वह एक स्वभाववाले ईश्वरकी कृति नहीं है, क्योकि उसके कार्य सुख-दुःखादिमे विचित्रता