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कर्मसिद्धान्त
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दृष्टिसे आवश्यक नही मानते और यथार्थमे फिर उन्हे आवश्यकता रह भी क्यो जाए? जैन-सिद्धान्त प्रत्येक प्राणीको अपना भाग्यविधाता मानता है, तव फिर विना ईश्वरकी सहायताके विश्वकी विविधताका व्यवस्थित समाधान करना जैन दार्शनिकोके लिए अपरिहार्य है। इस कर्म-तत्त्वज्ञान द्वारा वे विश्व-वैचित्र्यका समाधान तर्कानुकूल पद्धतिसे करते है। कर्मको बन्धन नामकी एक अवस्थाका वर्णन करनेवाला तथा चालीस हजार श्लोक प्रमाण वाला "महाबन्ध" नामका जैन ग्रन्थ प्राकृतभाषामे अभी विद्यमान है। ____ इस प्रकार कर्मके विपयमे विशद वैज्ञानिक जैन विवेचनाके सार पूर्ण अशपर ही यहा हम विचार कर सकेंगे। जैनाचार्य बताते है कि-आत्मा के प्रदेशोमे कम्पन होता है और उस कम्पनसे पुद्गल ( Matter ) का परमाणु-पुञ्ज आकर्षित होकर आत्माके साथ मिल जाता है, उसे कर्म कहते हैं। प्रवचनसारके टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि' लिखते है"आत्माके द्वारा प्राप्य होनेसे क्रियाको कर्म कहते है। उस क्रियाके निमित्त से परिणमन-विशेपको प्राप्त पुद्गल भी कर्म कहलाता है। जिन भावोके द्वारा पुद्गल आकर्षित हो जीवके साथ सम्वन्धित होता है उसे भावकर्म कहते है। और आत्मामे विकृति उत्पन्न करनेवाले पुद्गलपिंडको द्रव्यकर्म कहते हैं।" स्वामी अकलंकदेवका कथन हैं"जिस प्रकार पात्रविशेषमे रखे गये अनेक रसवाले वीज, पुष्प तथा फलोका मद्यरूपमे परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मामे स्थित पुद्गलो
१ "क्रियाया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म।"-प्रवचनसार टी० २-२५।
२ "यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामः, तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थिताना योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः।" -त० रा० पृ० २६४ ।