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जैनशासन
'राजन् , कोके नानात्वके कारण सभी मनुष्य समान नहीं होते।' महाराज, भगवान्ने भी कहा है-'मानवोका सद्भाव कर्मोके अनुसार है। सभी प्राणी कोके उत्तराधिकारी है। कर्मके अनुसार योनियोमे जाते है। अपना कर्म ही वन्धु है, आश्रय है और वह जीवका उच्च और नीचरूप मे विभाग करता है।' अशोकके शिलालेखकी सूचना न० ८ द्वारा कर्म का प्रभाव व्यक्त करते हुए सम्राट् कहते है -'इस प्रकार देवताओका प्यारा अपने कर्मोसे उत्पन्न हुए सुखको भोगता है।' पातञ्जल योगसूत्रमें-क्लेशका मूल कर्माशय-वासनाको बताया है। वह कर्माशय इस लोक और परलोकमे अनुभवमे आता है। हिन्दू जगत्के दृष्टिकोण को तुलसीदासजी इन शब्दोमे प्रकट करते है
"कर्मप्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करहि सो तस फल चाखा॥" इस प्रकार भारतीय दार्शनिकोके कर्मपर विशेष विचार व्यक्त हुए है। जैन सिद्धान्तमे इस कर्म-विज्ञानपर जो प्रकाश डाला गया है वह अन्य दर्शनोमे नही पाया जाता। यहा कर्म-विज्ञान ( Philosophy) पर बहुत गम्भीर, विशद, वैज्ञानिक चिन्तना की गई है। कर्म शब्दका उल्लेख अथवा नाममात्रका वर्णन, किसी सम्प्रदायकी पुस्तकोमें पढ कोई-कोई आधुनिक पण्डित कर्म-सिद्धान्तके वीज जैनेतर साहित्यमे सोचते है। किन्तु, जैन वाड मयके कर्म-साहित्य नामक विभागके अनुशीलनसे यह स्पष्ट होता है कि जैन-आगमकी यह मौलिक विद्या रही है। बिना कर्म सिद्धान्तके जैन शास्त्रका विवेचन पगु हो जाता है। ईश्वरको का माननेवाले सिद्धान्त भगवान्के हाथमे अपने भाग्यकी डोर सौप विश्व-वैचित्र्य आदिके लिए किसी अन्य शक्तिका वर्णन करना तर्ककी
१ "बुद्ध और बौद्धधर्म" पृ० २५६ । २ "क्लेशमूलः कर्माशयः, दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।" २-१२