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जैनशासन
का क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायो तथा मन, वचन, कायके निमित्तसे आत्मप्रदेशो के परिस्पन्दनरूप योगके कारण कर्मरूप परिणमन होता है ।
पंचाध्यायीमे यह बताया है कि - " आत्मामे एक वैभाविक शक्ति है जो पुद्गल-पुञ्जके निमित्तको पा आत्मामे विकृति उत्पन्न करती है ।"
"जीवके परिणामोका निमित्त पाकर पुद्गल स्वयमेव कर्मरूप परिणमन करते है'।" तात्त्विक भाषामे आत्मा पुद्गलका सम्बन्ध होते हुए भी जड़ नही बनता और न पुद्गल इस सम्बन्धके कारण सचेतन बनता है ।
प्रवचनसार संस्कृत टीकामें तात्त्विक दृष्टिको लक्ष्य कर यह लिखा है । " द्रव्यकर्मका कौन कर्त्ता है ? स्वय पुद्गलका परिणमन - विशेष ही । इसलिए पुद्गल ही द्रव्यकर्मोका कर्त्ता है, आत्मपरिणामरूप भावकर्मोका नही । अत आत्मा अपने अपने स्वरूपसे परिणमन करता है। पुद्गल स्वरूपसे नही करता।””
कर्मोका आत्माके साथ सम्बन्ध होनेसे जो अवस्था उत्पन्न होती है। उसे बन्ध कहते है । इस बन्ध पर्यायमे जीव और पुद्गलकी एक ऐसी नवीन अवस्था उत्पन्न हो जाती है जो न तो शुद्ध- जीवमे पाई जाती है। और न शुद्ध- पुद्गलमे ही । जीव और पुद्गल अपने-अपने गुणोसे कुछ च्युत होकर एक नवीन अवस्थाका निर्माण करते है । राग, द्वेष युक्त आत्मा १ "जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः
कर्मभावेन ||"
- पु० सिद्ध्युपाय १२ ।
२ " श्रथ द्रव्यकर्मणः कः कर्तेति चेत् ? पुद्गलपरिणामो हि तावत् स्वयं पुद्गल एव । ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गलात्मा श्रात्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता ; न त्वात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मणः । तत श्रात्मा श्रात्मस्वरूपेण परिणमति, न पुद्गलस्वरूपण परिणमति ।" पु० १७२ ।