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समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद
२०३ भान्ति होती है। इसी प्रकार ब्रह्माद्वैतवादीको एकत्वकी भ्रान्ति होती है। ___ अद्वैततत्त्वके समर्थनमे कहा जाता है 'मायाके कारण भेद प्रतीति अपरमार्थरूपमे हुआ करती है।' यह ठीक नहीं है ; कारण भेदको उत्पन्न करनेवाली माया यदि वास्तविक है तो माया और ब्रह्मका द्वैत उत्पन्न होता है। यदि माया अवास्तविक है, तो खरविषाणके समान वह भेद-बुद्धिको कैसे उत्पन्न कर सकेगी? ___ अद्वैतके समर्थनमे यदि कोई युक्ति दी जाती है, तो हेतु तथा साध्य रूप द्वेत आ जायगा। कदाचित् हेतुके विना वचनमात्रसे अद्वैत प्ररूपण ठीक माना जाय, तो उसी न्यायसे द्वैत तत्त्व भी सिद्ध होगा। इसीलिए स्वामी समन्तभद्रने लिखा है
"हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेत् द्वैतं स्यात् हेतुसाध्ययोः । हेतुना चेहिना सिद्धिः, द्वेत वाडमात्रतो न किम् ॥ २६॥"
-प्राप्तमीमासा अद्वैत शब्द जव द्वैतका निपेधपरक है तो वह स्वय द्वैतके सद्भावको सूचित करता है। निषेध किये जानेवाले पदार्थके अभावमे निषेध नही किया जाता। अत. अद्वैत शब्दकी दृष्टिसे द्वैत तत्त्वका सद्भाव असिद्ध नहीं होता।
"अद्वैतं न विना द्वैतात् , अहेतुरिव हेतुना । सज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यात् ऋते क्वचित् ॥ २७॥"
-आप्तमीमांसा १ "अद्वैतशब्द. स्वाभिधेयप्रत्यनीकपरमार्थापेक्षो नग पूर्वाखण्डपदत्वात् अहेत्वभिधानवत् ।"-अष्टसहली पृ० १६१-अद्वैत शब्द अपने वाच्यके विरोधी परमार्यरूप द्वैतको अपेक्षा करता है, कारण अद्वैत यह प्रखण्ड तथा न पूर्व अर्थात् निषेधपूर्व पद है । जैसे अहेतु शब्द है।