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जैनशासन
"घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।'
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥५६॥" अद्वैत तत्त्वका समर्थक 'एक ब्रह्म द्वितीय नास्ति' कथन द्वारा द्वैत तत्त्वका निषेध करता है। इस विषयपर विचार किया जाय तो इस पक्ष की दुर्बलताको जगत्का अनुभव स्पष्ट करता है। यदि सर्वत्र एक ब्रह्म ही का साम्राज्य हो, तब जब एकका जन्म हो, उसी समय अन्यका मरण नहीं होना चाहिए। एकके दुखी होनेपर उसी समय दूसरेको सुखी नहीं होना चाहिए, किन्तु ऐसा नही देखा जाता। जब किसीका जन्म है उसी समय अन्यका मरण आदि होता है।
"यदैवेकोऽश्नुते जन्म जरां मृत्यु सुखादि वा। तदैवान्योन्यदित्यंग्या भिन्ना प्रत्यंगभंगिनः॥"
-अनगारधर्मामृत पृ० १०६ किन्ही वेदान्तियोका कथन है जैसे एक बिजलीका प्रवाह सर्वत्र विद्यमान रहता है, फिर भी जहा बटन दबाया जाता है, वहा प्रकाश हो जाता है, सर्वत्र नही। इसी प्रकार एक व्यापक ब्रह्मके होते हुए भी किसीका जन्म, किसीका बुढापा, किसीका मरण आदि होना न्यायाविरुद्ध है।
इस समाधानपर सूक्ष्म विचार किया जाय, तो इसकी सदोषता स्पष्ट हो जाती है। बिजलीका अविच्छिन्न प्रवाह देखकर भूमसे विद्युत्को सर्वत्र एक समझते है, यथार्थमे विद्युत् एक नही है। जैसे पानीके नलमें प्रवाहित होनेवाला जल बिन्दुपु ज रूप है। एक-एक बिन्दु पृथक्-पृथक् है। समुदाय रूप पर्याय होनेके कारण वह एक माना जाता है। यही न्याय विजलीके विषयमे जानना चाहिए। जलते हुए बिजलीके और बुझे हुए वल्बकी विद्युत्मे प्रवाहकी दृष्टिसे एकत्व होते हुए भी सूक्ष्म दृष्टिसे अन्तर है। भूमवश सदृशको एक माना जाता है। नाईके द्वारा पुन -पुन बनाये जानेवाले बालोमे पृथक्ता होते हुए भी एकत्वकी