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________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद . २०१ वस्तु स्वरूपकी दृष्टिसे विचार किया जाय, तो उसमे क्षणिकत्वके साथ नित्यत्व धर्म भी पाया जाता है । इस सवधमे दोनो दृष्टियोका समन्वय करते हुए स्वामी समन्तभद्र लिखते है "नित्य तत्प्रत्यभिज्ञानानाकस्मात्तदविच्छिदा। क्षणिक कालभेदात्ते बुद्धयसंचरदोषतः॥५६॥" प्राप्तमीमासा। वस्तु नित्य है, कारण उसके विषयमे प्रत्यभिज्ञानका उदय होता है। दर्शन और स्मरण ज्ञानका सकलन रूप ज्ञान-विशेष प्रत्यभिज्ञान कहलाता है, जैसे वृक्षको देखकर कुछ समयके अनन्तर यह कथन करना कि यह वही वृक्ष है जिसे हमने पहिले देखा था। यदि वस्तु नित्य न मानी जाय, तो वर्तमानमे वृक्षको देखकर पहले देखे गये वृक्षसवधी ज्ञानके साथ समि; श्रित ज्ञान नहीं पाया जायगा। यह प्रत्यभिज्ञान अकारण नहीं होता, उसका अविच्छेद पाया जाता है। दूसरी दृष्टिसे (अवस्थाकी दृष्टिसे) तत्त्वको क्षणिक मानना होगा, कारण वही प्रत्यभिज्ञान नामक ज्ञानका पाया जाना है। क्षणिक तत्त्वको माने विना वह ज्ञान नहीं बन सकता। कारण इसमे कालका भेद पाया जाता है। पूर्व और उत्तर पर्यायमे प्रवृत्तिका कारण कालभेद अस्वीकार करनेपर वृद्धिमें दर्शन और स्मरणकी सकलनरूपताका अभाव होगा। प्रत्यभिज्ञानमे पूर्व और उत्तर पर्याय बुद्धिका सचरण कारण पडता है। सुवर्णकी दृष्टिसे कुण्डलका ककणरूपमे परिवर्तन होते हुए भी कोई अन्तर नहीं है। इसलिए स्वर्णकी अपेक्षा उक्त परिवर्तन होते हुए भी उसे नित्य मानना होगा। पर्याय ( modification ) की दृष्टिसे उसे अनित्य कहना होगा, क्योकि कु डल पर्यायका क्षय होकर ककण अवस्था उत्पन्न हुई है। इसी तत्त्वको समझाते हुए 'आप्तमीमासा' में स्वर्णके घटनाश और मुकुटनिर्माणरूप पर्यायोकी अपेक्षा अनित्य मानते हुए स्वर्णकी दृष्टिसे उसी पदार्थको नित्य भी सिद्ध किया है। प्राप्तमीमासाकारके शब्द इस प्रकार है
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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