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जैनशासन
एक मार्मिक शकाकार कहता है 'यदि वास्तविक द्वैतको स्वीकार किये बिना अद्वैत शब्द नही वन सकता, तो वास्तविक एकातके अभाव मे उसका निषेधक अनेकात शब्द भी नही हो सकता "
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इसके समाधानमें आचार्य विद्यानन्दि कहते है कि हम सम्यक् एकात के सद्भावको स्वीकार करते है, वह वस्तुगत अन्यधर्मोका लोप नही करता । मिथ्या एकात अन्य धर्मोका लोप करता है । अत सम्यक् एकातरूप तत्त्व इस चर्चा बाधक नही है ।
एक दार्शनिक कहता है, 'अवस्तुका भी निषेध देखा जाता है, गधे के सीगका अभाव है, ऐसे कथनमे क्या बाधा है ? इसी प्रकार अपरमार्थरूप द्वैतका भी अद्वैत शब्द द्वारा निषेध माननेमे क्या वाधा है ?"
द्वैत शब्द अखड ( Simple ) है और खरविषाण सयुक्त पद ( Compound ) है । अत यह द्वैतके समान नही है । खरविषाण नामकी कोई वस्तु नही है । खर और विषाण दो पृथक्-पृथक् अस्तित्व धारण करते है। उनका सयोग असिद्ध है । जैसा निषेधयुक्त अखंडपद अद्वैत है, उस प्रकारकी वात खरविषाणके निषेधमे नही है । अद्वैततत्त्व माननेपर स्वामी समन्तभद्र कहते है
"कर्मद्वैतं फलद्वैत लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्याद्वयं न स्यात् बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥ २५ ॥" - श्राप्तमीमासा
पुण्य-पापरूप कर्मद्वैत, शुभ -अशुभ फलद्वैत, इहलोक-परलोका लोकद्वैत, विद्या अविद्यारूप द्वैत तथा बधमोक्षरूप द्वैतका अभाव ह जायगा । आत्मविकास और ब्रह्मत्वकी उपलब्धि निमित्त योग, ध्यान, धारणा समाधि आदिके जो महान् शास्त्र रचे गए है, उनके अनुसार आचरण आि की व्यवस्था कूटस्थ नित्यत्व या एकान्त क्षणिकत्व प्रक्रियामें नही बनती है । महापुराणकार भगवत् जिनसेन कहते है