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जनशासन
किया है। उन्होने तनिक भी न सोचा कि सत्य-सूर्यको किरणोके समक्ष भूमान्धकार कबतक टिकेगा। ऐसे भूम-जनक दो-एक लेखकोकी बातोपर हम प्रकाश डालेगे। अन्यथा स्याद्वाद-शासनपर ही समग्र-ग्रन्थ पूर्ण हो जायगा। श्री बलदेवजी उपाध्याय 'स्याद्वाद' शब्दके मूलरूप 'स्यात्' शब्दके विषयमे लिखते है-'स्यात्-(शायद, सम्भव) शब्द 'अस्' धातुके विधिलिड के रूपका तिडन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है।" परन्तु स्यात् शब्दके विषयमे स्वामी समन्तभद्र का निम्नलिखित कथन ध्यान देने योग्य है
"वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यम्प्रति विशेषकः। स्यान्निपातोऽर्ययोगित्वात्तव केवलिनामपि॥"
-आप्तमीमासा, १०३ यहां स्यात् शब्दको अनेकान्तको घोतित करनेवाला बताया है, वह निपातरूप (indeclinable) शब्द है।
पचास्तिकायकी टीकामे अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं
"सर्वथात्व-निषेधकोऽनेकान्तता-द्योतकः, कथञ्चिदर्थे स्याच्छरदो निपातः" स्यात् शब्द निपात है, वह सर्वथापनेका निषेधक, अनेकान्तपनेका द्योतक, कथञ्चित् अर्थवाला होता है। एक शब्दके अनेक अर्थ होते है। सैधवका नमकरूप अर्थके साथ घोडा भी अर्थ होता है। प्रकरणके अनुसार वक्ताकी दृष्टिको ध्यानमे रख उचित अर्थ किया जाता है। इसी प्रकार स्यात् शब्दका प्रस्तुत प्रकरणमे अनेकान्त द्योतकरूप अर्थ मानना उचित है। अष्टसहस्रीकी टिप्पणी (पृ० २८६) की निम्न पक्तिया भी इस विषयमे ध्यान देने योग्य है____ "विध्यादिष्वर्थेष्वपि लिडलकारस्य स्यादिति क्रियारूपं पदं सिद्ध्यति, परन्तु नायं स शब्द., निपात इति विशेष्योक्तत्वात्।" ___ स्याद्वाद विद्याको महत्त्वपूर्ण मान आजका शोधक ससार जब उसे जैनधर्मकी ससारको अपूर्व देन समझने लगा, तब स्याद्वाद सिद्धान्तपर