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समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद
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महाशयकी दलील है कि "शकराचार्यने अपनी व्याख्यामे पुरातन जैन दृष्टिका प्रतिपादन किया है और इसलिए उनका प्रतिपादन जान-बूझकर मिथ्या प्ररूपण नही कहा जा सकता। जैनधर्मका जैनेतर साहित्यमे सबसे प्राचीन उल्लेख बादरायणके वेदान्त सूत्रमे मिलता है, जिसपर शकराचार्य को टोका है। हमे इस बातको स्वीकार करनेमें कोई कारग नजर नहीं आता कि जैनधर्मकी पुरातन बातको यह घोतित करता है। यह बात जैनधर्मकी सबसे दुर्वल और सदोष रही है। हा, आगामी कालमें स्थाद्वादका दूसरा रूप हो गया, जो हमारे आलोचकोके समक्ष है और अब उसपर विशेष विचार करनेको किसीको आवश्यकता प्रतीत नहीं
होती।"
___ स्याद्वादकी डॉ० वेलवलकरकी दृष्टिसे शकराचार्यके समयतककी प्रतिपादना और आधुनिक रूपरेखामें अन्तर प्रतीत होता है। अच्छा होता कि पूनाके डाक्टर महाशय किसी जैन शास्त्रके आधारपर अपनी कल्पनाको सजीव प्रमाणित करते। जैनधर्मके प्राचीनसे प्राचीन शास्त्रमें स्याद्वादके सप्तभगोका उल्लेख आया है, अत डाक्टर साहब अपनी तर्कणाके द्वारा शकर और उनके समान आक्षेपकर्ताओको विचारकोंके समक्ष निर्दोष प्रमाणित नहीं कर सकते। यह देखकर आश्चर्य होता है कि कभी कभी विख्यात विद्वान् भी व्यक्ति-मोहको प्राधान्य दे सुदृढ़ सत्यको भी फू कसे उडानेका विनोदपूर्ण प्रयत्न करते है। जब तक जैनपरम्परामे स्याद्वादकी भिन्न-भिन्न प्रतिपादना बेलवलकर महाशय सप्रमाण नही बता सकते और जब है ही नही तब वता भी कैसे सकेंगे-तब तक उनका उद्गार साम्प्रदायिक सकीर्णताके समर्थनका सुन्दर सस्करण सुज्ञों द्वारा समझा जायगा। ___ स्याद्वाद जैसे सरल और सुस्पष्ट हृदयग्राही तत्त्व-ज्ञानपर सम्प्रदायमोहवश भूम उत्पन्न करनेमे किन्ही-किन्ही लेखकोने जैनशास्त्रोका स्पर्श किये बिना ही केवल विरोध करनेकी दृष्टिसे ही यथेष्ट लिखनेका प्रयास
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