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समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद
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एक नवीन प्रकारका मधुर आरोप प्रारम्भ हुआ है। अत स्यात् शब्दका अर्थ शायद नहीं है किन्तु एक सुनिश्चित दृष्टिकोण है। ___ बौद्ध भिक्षु श्रीराहुलजीने अपने दर्शन-दिग्दर्शनमे अन्य कतिपय लेखकोका अनुकरण करते हुए सामञफलसुत्त नामक अपने सम्प्रदायके शास्त्राधारपर सजयवेलट्ठि पुत्तके मुखसे जो कहलाया है कि-"अत्यिति पि नो, नथिति पि नो, अस्थि च नत्यि च ति पि नो, नैवत्यि नो नत्य ति पि नो।" मै उसे इस रूपमें नहीं मानता, मै उसे अन्य रूप भी नहीं कहता, मै इस रूप तथा अन्य रूप भी नहीं कहता, ने यह भी नहीं कहता कि वह इस रूप और अन्य रूप नही है। इसमे स्याद्वादके वीज उन्हे विदित होते है। प्रो० ध्रुवजीने भी इस विषयमे सकेत किया है, किन्तु उनके लेखमे राहुलजीकी भापाका अनुकरण न कर सौजन्य
और शालीनताका पूर्णतया निर्वाह किया गया है। उपर्युक्त अवतरणमे स्थाद्वादके वीज मानना काचकी आखको वास्तविक आख माननेके समान होगा। स्याद्वादको सुदृढ और सत्यकी नीवपर प्रतिष्ठित तर्कसगत शैली और पूर्वोक्त अवतरणकी गिथिल सर्कविरुद्ध विचारधाराओमे सजीव और निर्जीव सदृश अन्तर है। सञ्जयवेलट्ठिपुत्तका वर्णन एकान्त अनिर्वचनीयवादकी ओर झुकता है, जो कि अनुभव और तर्कसे वाधित है। आचार्य विद्यानन्दि इस प्रकारकी दृष्टिपर प्रकाश डालते हुए लिखते है कि-वस्तुको सद्भावरूप तथा असद्भावरूप भी न कहनेपर जगत्मे मूकत्वकी परिस्थिति आ जाएगी। स्याद्वाद ऐसे मूकत्वका निराकरण कर सयुक्तिक अविरोधी सम्भापणशीलताका
१ "तहस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि, यदपि च भणामि तदपि न भणामोति दर्शनमस्तु इति कश्चित्.....। सद्भावतराभ्यामनभिलापे वस्तुनः केवलं मूकत्वं जगतः स्यात्, विधिप्रतिषेधव्यवहारायोगात्। -अष्टसहस्री, पृ० १२६ ।