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जैनशानन
श्री मृग पर्याय और सुगत पर्याय पृथक है । मृगपर्याय में सुगत पर्यायका अभाव है और सुगत पर्यायमें मृग पर्यायका अभाव है। यदि उनका परम्परर्मे अभाव न माना जाए तो निम्न प्रकार उपहासपूर्ण अन्य प्राण होगी
"भुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि युगतः स्मृतः । तथापि मुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ॥ ३७३ ॥ तथा वस्तुवलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः ।
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति ? ॥ ३७४ ॥" -न्यायविनिश्चय । सुगन भी मृग हुए थे और मृग भी सुगत हुआ ( इनमें यदि परस्पर भिन्नता न हो तो मृग समान मुगतको भदय मानना होगा अथवा सुगतके समान मृगको भी वन्दनीय कहना होगा ) फिर भी सुगतको जिन प्रकार तुम वन्द्य और मृगको खाद्य मानते हो, उसी प्रकार वस्तुस्वभाव बलमे भेद-अभेदकी व्यवस्था होती है। इसलिए 'ही खाओ' कहनेपर ऊँटकी ओर क्यो दौड़ा जाए ?
इन कथनका सार यह है कि, यदि दविमें ऊँटका सद्भाव होता अर्थात् दधि अपने स्वरूपमें अस्तिरूप रहते हुए भी ऊँट आदिकी अपेक्षा ने भी अन्तिन्न होता, तो दहीके ममान ऊँटको खानेकी और प्रवृति होनी, किन्तु ऐसा नहीं है। इसी दृष्टिको सुगतके उदाहरण द्वारा परिहासपूर्ण शैलीसे वर्मकीतिको सतुष्ट किया है। आजके युगमें यह पद्धति प्रिय न लगेगी। किन्तु धर्मकीति और उनकी सदृश शैलीवाले बौद्ध विद्वानोने जिस ढंगसे अनेकान्त तत्त्वज्ञानपर क्रूर प्रहार किया है उसे दृष्टिपथमें रखते हुए तार्किक कलंकका परिहास अकलक ज्ञात होता है। क्या राहुलजी अकलककी आलोचनाके प्रकाशमें यह बात देखने का प्रयत्न करेंगे कि दिग्नाग आदि कुछ प्रतिभाशाली वीद्याचार्योंके द्वारा सभी विषय चर्वित होनेके कारण उच्छिष्ट नही है । समन्त