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समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद
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भद्र,अकलक,प्रभाचन्द्र प्रभृति प्रभावक जैन ताकिकोने समीक्षकोको विपुल मौलिक मधुर जीवनदात्री भोज्य सामग्री प्रस्तुत की है ।"
जिस प्रकार स्वरूप - चतुष्टय ( स्व - द्रव्य, स्व क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव ) की अपेक्षा वस्तु अस्तिरूप है और परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिरूप है उसी प्रकार वस्तु उपर्युक्त अस्ति नास्ति धर्मोको एक साथ कथन करनेकी वाणीकी असमर्थतावश अवक्तव्य - अनिर्वचनीयरूप भी कही गई है। इस विषयमे एकान्तवादी वस्तुको सर्वथा अनिर्वचनीय शब्दके द्वारा अनिर्वचनीय कहते हुए परिहासपूर्ण अवस्थाको उत्पन्न करते है । इसी कारण स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमासामें लिखा है
"श्रवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ।" - श्लोक १३। अवाच्यत। रूप एकान्त माननेपर वस्तु अवाच्य रूप है- अनिर्वचनीय है, यह कथन सगत नही है । तार्किकके ध्यानमें यह बात तनिक में आ जाएगी, कि जब अनिर्वचनीय शब्दके द्वारा वस्तुका प्रतिपादन किया जाता है तब उसे सर्वथा अनिर्वचनीय कैसे कह सकते है।
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तत्त्वको एकान्तत अनिर्वचनीय माना जाए, तो किस प्रकार दूसरे को उसका बोध कराया जाएगा। क्या मात्र अपने ज्ञानसे वाणी की सहायता पाए बिना अन्यको ज्ञान कराया जा सकेगा ? इसलिए उसे कथञ्चित् अनिर्वचनीय कहना होगा । पदार्थकी स्थूल पर्यायें शब्दोके द्वारा कहने सुनने आती ही है। सत्त्व और असत्त्व, भाव और अभाव, विधि और प्रतिषेध तथा एक और अनेक रूप तत्त्वका एक समय मे प्रतिपादन शब्दोकी शक्तिके परे होनेसे कथञ्चित् अनिर्वचनीय धर्मका सद्भाव स्वीकार करना पडता है। इन तीन अर्थात् स्यात् अस्ति, स्यात्
१ "दर्शन-दिग्दर्शन' पुस्तकमें धर्मकीर्ति परिचयमें किए गए जैनधर्मपर प्रक्षेपी समीक्षा ।