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समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद
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काल और भावकी दृष्टिसे सत्स्वरूप है, वही वस्तु अन्य पदार्थों की अपेक्षा नास्ति रूप होती है। हाथी अपने स्वरूपको अपेक्षा सद्भाव रूप है लेकिन हाथीसे भिन्न ऊँट, घोडा आदि गजसे भिन्न वस्तुओं की अपेक्षा हाथी असद्भावात्मक होता है। यदि स्वरूपकी अपेक्षा हाथीके सद्भावके समान पररूपकी भी अपेक्षा हाथीका सद्भाव हो तो हाथी, अंट, घोडे आदिमे कोई अन्तर न होगा। इसी प्रकार यदि ऊँट आदि हाथीसे भिन्न पदार्थोकी अपेक्षा जैसे गजको असद्भाव-नास्ति रूप कहते है उसी प्रकार स्वरूपकी अपेक्षा भी यदि गज नास्ति रूप हो जाए तो हाथीका सद्भाव नही रहेगा।
तत्त्वार्थराजवार्तिकमे आचार्य अकलंकदेवने बताया है किवस्तुका वस्तुत्व इसीमें है कि वह अपने स्वरूपको ग्रहण करे और परकी अपेक्षा अभाव रूप हो। इन विधि और निषेधरूप दृष्टियोको अस्ति और नास्ति नामक दो भिन्न धर्मो द्वारा बताया है।
इस विषयको समझानेके लिए न्याय-शास्त्रमे एक उदाहरण दिया जाता है कि दधि स्वरूपकी अपेक्षा दधि है, यदि वह दधिसे भिन्न ऊँटकी अपेक्षा भी दधि हो तो जिस तरह 'दधि खाओ' कहनेपर व्यक्ति दहीकी ओर जाता है उसी प्रकार उपर्युक्त वाक्य सुनकर उसे ऊँटकी
ओर दौडना था। किन्तु इस प्रकारका क्रम नही देखा जाता । इससे यह निष्कर्ष न्यायोपात्त है कि वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा अस्तिरूप है
और पररूपकी अपेक्षा नास्तिरूप। इस रहस्यको तिरस्कारको दृष्टिसे देखनेवाले वौद्ध-आचार्य धर्मकीर्तिकी कटु आलोचनाका उपहासपूर्ण भापा द्वारा निराकरण करते हुए अकलंकदेव कहते है-बुद्धदेव अपने पूर्वभव मे एकवार मृग रह चुके है। वास्तवमे अनेकान्त विद्याके प्रकागमे जीव १ "स्वपरात्मोपादानापोहनव्यवस्थापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वन् ।"
पृ० २४