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जनशासन
कि-चार्वाकने तो पूर्वोक्त दृष्टिसे भी आगे बढ लोकोपयोगी आकर्षक युक्ति द्वारा विश्वकी समीक्षाको 'बालू पेलि निकाल तेल' जैसी सारहीन समस्या समझाया। देखिए वह क्या कहता है-तर्कके सहारे सत्यको देखना चाहो तो वह हमारा ठीक मार्ग-दर्शन नहीं करता। जिस प्रकार तर्क एक पक्षके औचित्यको बतानेवाली सामग्री उपस्थित करता है उसी प्रकार अन्य पक्षको उचित बतानेवाली सामग्रीको भी कमी नही है। शास्त्रो के प्रमाण भी परस्पर विचित्रताओसे परिपूर्ण है। एक ज्ञानी पुरुष की लिखी बात प्रमाणित माने और दूसरेकी नहीं, यह सलाह ठीक नही जंचती। धर्मका स्वरूप मनुष्यकी बुद्धिके परे है। वह है अथवा नही, नहीं कह सकते। गडरियेके नेतृत्वमे जिस प्रकार भेडोका झुण्ड रहा करता है उसी प्रकार प्रभावशाली पुरुष अपने-अपने पन्थका नेता वन लोगोको अपनी ओर खीच लेता है। इस दृष्टिसे तो मानव-जीवन की जो विशेष-शक्ति तर्कणा है, वह बिल्कुल अकार्यकारी हो जाती है। ऐसी निबिड-निराशाको अवस्थामे भी जैनधर्मका अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद नामका वैज्ञानिक उपाय पर्याप्त प्रकाश तथा स्फूर्ति प्रदान करता है।
सत्यका स्वरूप समझनेमे डरकी कोई बात ही नही है। भूम, असामर्थ्य अथवा मानसिक दुर्बलताके कारण कोई बड़ा सन्त बन और कोई दार्शनिक के रूपमे आ हमे रस्सीको साप बता डराता है। स्याद्वाद विद्याके प्रकाशमे साधक तत्काल जान लेता है कि यह सर्प नही रस्सी है-इससे डरनेका कोई कारण नही है।
पुरातनकालमे जब साम्प्रदायिकताका नशा गहरा था, तब इस स्याद्वाद सिद्धान्तकी विकृत रूप-रेखा प्रदर्शित कर किन्ही-किन्ही नामाकित धर्माचार्योने इसके विरुद्ध अपना रोष प्रकट किया और उस सामग्रीके प्रति 'वावावाक्य प्रमाणम्' की आस्था रखनेवाला आज भी सत्यके प्रकाश