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समन्वयका मार्ग- स्याद्वाद
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है ।' ऐसे सकीर्ण विचारवालोके सयोगसे जो सघर्ष होता है उसे देख साधारण तो क्या वडे - वडे साधुचेतस्क व्यक्ति भी सत्य समीक्षणसे दूर हो परोपकारी जीवनमे प्रवृत्ति करनेकी प्रेरणा कर चुप हो जाते है । और, यह कहने लगते है - सत्य उलझनकी वस्तु है। उसे अनन्त कालतक सुलझाते जाओगे तो भी उलझन जैसीकी तैसी गोरख-धन्धेके रूपमे वनी रहेगी । इसलिए थोडेसे अमूल्य मानव जीवनको प्रेमके साथ व्यतीत करना चाहिए। इस दृष्टिवाले वुद्धिके धनी होते है, तो यह शिक्षा देते है
"कोई कहें कछु है नही, कोई कहे कछ है । है नौ नहींके बीचमें, जो कुछ है सो है ॥ "
साधारण जनताकी इस विषयमे उपेक्षा दृष्टिको व्यक्त करते हुए कवि अकबरने कहा है
"मजहबी वहस मैने की ही नहीं फालतू अक्ल मुझमें थी ही नहीं ।"
ऐसी धारणावाले जिस मार्गमे लगे हुए चले जा रहे है, उसमे तनिक भी परिवर्तनको वे तैयार नही होते। कारण, अपने पक्षको एकान्त सत्य समझते रहनेसे सत्य - सिन्धुके सर्वागीण परिचयके सौभाग्य से वे वचित रहते है । एक बार एक विश्वधर्मं सम्मेलनमे मुझे सम्मिलित होनेका सुयोग मिला। वौद्धधर्मका प्रतिनिधित्व करनेवाले दर्शन शास्त्रके आचार्य एक डॉक्टर महानुभावने कहा था कि बुद्ध देवनं प्रपञ्चके विषयमे सत्य समीक्षणकी दृष्टिमे अपने भक्तोका काल-क्षेप करना उचित नही समझकर लोक-सेवा, प्रेम, धर्म-प्रचार आदिको जीवनोपयोगी कहा । इसलिए डाक्टर महाशयकी दृष्टिमे दार्शनिकताका मार्ग कण्टक-मय और मृग मरीचिकाका रास्ता था । उस समय जैन-धर्मकी समन्वयकारी दृष्टिपर प्रकाश डालनेकी चिन्तनामे में निमग्न था । जैनधर्मके अपने भाषणके प्रारम्भमें मैने बौद्ध प्रतिनिधिके प्रभावको ध्यान में रखते हुए कहा