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समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद
साधकके लिए जिस प्रकार पुण्य-जीवन और पवित्र प्रवृत्तियोकी आवश्यकता है, उसी प्रकार हृदयसे सत्यका भी निकटतम परिचय होना आवश्यक है । मनुष्यकी मर्यादित शक्तिया है । पदार्थोके परिज्ञानके साधन भी सदा सर्वथा सर्वत्र सबको एक ही रूपमें पदार्थोका परिचय नही कराते । एक वृक्ष समीपवर्ती व्यक्तिको पुष्प-पत्रादि- प्रपूरित प्रतीत होता है, तो दूरवर्तीको उसका एक विलक्षण आकार दीखता है । पर्वत के समीप आनेपर वह हमे दुर्गम और भीषण मालूम पडता है, किन्तु दूरस्थ व्यक्तिको वह रम्य प्रतीत होता है - "दूरस्था भूधरा रम्या " । इसी प्रकार विश्वके पदार्थोके विषयमे हम लोग अपने-अपने अनुभव और अध्ययन का विश्लेषण करे, तो एक ही वस्तुके भिन्न-भिन्न प्रकारके अनुभव मिलेगे; जिनको अकाट्य होनेके कारण सदोष या भूम-पूर्ण नही कहा जा सकता । एक 'सखिया' नामक पदार्थ के विषयमे विचार कीजिए । साधारण जनता उसे विष रूपसे जानती है, किन्तु वैद्य उसका भयकर रोग निवारण में सदा प्रयोग करते है । इसलिए जनताकी दृष्टिसे उसे मारक कहा जाता है और वैद्योकी दृष्टिसे लाभप्रद होनेके कारण उसका सावधानीपूर्वक प्रयोग किया जाता है |
इसी प्रकार वस्तुओके विषयमे भिन्न-भिन्न प्रकारकी दृष्टिया सुनी जाती है और अनुभवमे भी आती है । इन दृष्टियोपर गम्भीर विचार न कर कूप-मण्डूकवत् सकीर्णं भावसे अपनेको ही यथार्थ समझ विरोधी दृष्टिको एकान्त असत्य मान बैठते है । दूसरा भी इनका अनुकरण करता