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अहिंसा के आलोक मे
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वाह्य विशिष्ट वस्त्रादि धारणसे यह काम नही होगा । श्री कालेलकर महाशयका कथन विशेष आकर्षक है: - "विना परिश्रम किए हम अहिंसक, नही बन सकेगे । अहिंसाकी साधना वडी कठिन है। एक ओर पौद्गलिक भाव खीच-तान करता है, तो दूसरी ओर आत्मा सचेत बनता है । शरीर प्रथम' विचार करता है, आत्मा उत्कर्षका चिन्तन करता है । दूसरोका हित हृदयमे रहनेसे आत्मा धार्मिक श्रद्धावान बनता है । आज देखते है, तो पता चलता है कि सब राष्ट्र युद्धसे पृथक् रहना चाहते है, पर साथ ही साथ युद्धकी सामग्री भी पूरे जोरसे जुटाते फिरते है ।" ऐसी विकट स्थिति में परित्राणका क्या उपाय होगा, इस सम्वन्धमे वे कहते है, "आजकी मानबताको युद्धके दावानलसे मुक्त करनेका एकमात्र उपाय भगवान् महावीरकी अहिंसा ही है ।" शुभचन्द्राचार्य कहते हैं.
“यत्किञ्चित्संसारे शरीरिणां दुःखशोकभयबीजम् । दौर्भाग्यादि समस्तं तद्विसासम्भवं ज्ञेयम् ॥" - ज्ञानार्णव पृ० १२० ।
इस ससारमें जीवोके दुख, शोक, भयके बीजस्वरूप दुर्भाग्य आदि का दर्शन होता है, वह सब हिंसासे उत्पन्न समझना चाहिए। एक कविने कितना सुन्दर कहा है
"Whoever places in man's path a snare, Himself will in the sequel stumble there. Joy's fruit upon the branch of kindness grows. Who sows the bramble, will not pluck the rose." जो दूसरेके मार्गमें जाल बिछाता है, वह स्वय उसमे गिरेगा । करुणा की शाखामें आनन्दके फल लगते है। जो काटा वोता है वह गुलावको नही पावेगा ।
१ 'जैन' भावनगर सन् १९४६