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अहिंसाके आलोकमे
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सब अवस्थावाले व्यक्तियो के लिए उपयोगी है। वे चाहे नरेश, योद्धा, व्यापारी, शिल्पकार अथवा कृषक हो, वह स्त्री-पुरुषकी प्रत्येक अवस्थाके लिए उपयोगी है। जितनी अधिक दयालुतासे वन सके अपना कर्त्तव्य पालन करो। सूत्र रूपमें यह जैनधर्मका मुख्य सिद्धान्त है । "
हिंसाका तृतीय भेद आरम्भी हिंसा कहा जाता है। जीवन-यात्राके लिए शरीररूपी गाड़ी चलानेके लिए उचित रीतिसे उसका भरण-पोषण करने के लिए आहार -पान आदिके निमित्त होनेवाली हिंसा आरम्भी हिसा है । शुद्ध भोजन - पानका आत्म-भावोके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, यह बात पहिले स्पष्ट की जा चुकी है। हितोपदेशमे हरिण पात्रके द्वारा गुद्धआहारके सम्वन्धमे एक महत्त्वपूर्ण पद्य आया है
"स्वच्छन्दवन जातेन शाकेनापि प्रपूर्यते । अस्य दग्धोदरस्यार्थे कः कुर्यात् पातकं महत् ॥ | "
जब स्वच्छन्दरूपसे बनमे उत्पन्न वनस्पतिके द्वारा उदर- पोपण हो सकता है तब इस दंग्ध - उदरके लिए कौन वडा पाप करे ?
जिनके प्राण रसना इन्द्रियमे बसते है, वे तो इन्द्रियके दास बन विना विवेकके राक्षस सदृश सर्वभक्षी बननेसे नही चूकते। मद्य, मासादि द्वारा शरीरका पोपण उनका ध्येय रहता है । अनेक प्रकारके व्यजनादिसे जिहवाको लाचसी देकर अधिक-से-अधिक परिमाणमे भोज्य सामग्री उदरस्थ की जाती है । पशुजगत्के आहारपानमे भी कुछ मर्यादा रहती हैं, किन्तु भोगी मानव ऐसे पदार्थों तकको स्वाहा करनेसे नही चूकता, जिनका वर्णन सुन सात्त्विक प्रवृत्तिवालोको वेदना होती है ।
सम्राट् अकबरका जीवन जव जैन सत हरिविजय सूरि आदिके सत्सगसे अहिंसा भावसे प्रभावित हुआ तव अबुलफजुलके गब्दोमे सम्राट्की श्रद्धा इस प्रकार हो गई - "It is not right that a man should make his stomach the grave of animals".
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