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जनशासन
यह उचित वात नहीं है कि इन्सान अपने पेटको जानवरोकी कब्र बनाये ( Am-i-Akabari Vol. 3, BK V. P. 880 ) यवन सम्राट अकबरने अपने जीवनपर प्रकाश डालते हुए यह भी कहा है-"मास-भक्षण प्रारभसे ही मुझे अच्छा नही लगता था, इससे मैने उसे प्राणिरक्षाका सकेत समझा और मैने मासाहार छोड दिया।
बौद्ध वाड मयमे, बुद्ध-देवके 'सूकर-मद्दव' भक्षणका उल्लेख पा शूकरका मास बुद्धने खाया' यह अर्थ, मालूम होता है चीन और जापानने हृदयगम किया है। यदि ऐसा न होता तो आज मास-भक्षणमे वे देश अन्य मास-भक्षी देशोसे आगे न बढते । एक वार 'समाचार पत्रोमे बौद्ध जगत्के लोगोके आहार-पानपर प्रकाश डालनेवाला लेख प्रकट हुआ था। उससे विदित होता था कि वे लोग आहारके नामपर किसी जीवको नही छोडते। वे सर्वभक्षी है, सर्पभक्षी भी है। कृत्रिम उपायोसे मलिन वस्तुओमें कीटादि उत्पन्न कर वे अपनी इच्छाको तृप्त करते है। प्रतीत होता है अपने धर्ममै आनन्दका अतिरेक अनुभव करनेवाले धर्मानन्दनी कोसम्वी ने यह सोचने का कष्ट नहीं किया कि धर्मके प्रधान स्तम्भमे जीवनके शैथिल्यसे गतानुगतिक वृत्तिवाली जनताका क्या हाल होता है। बुद्ध जगत्की अमर्यादित मास-गृद्धता यह निर्णय निकालनेके लिए प्रेरित करती है, कि शाक्य मुनिके जीवनके साथ शूकर-मद्दव-- शूकर मासका दुर्भाग्यसे सम्बन्ध रहा होगा। उसे देख चेलोने अपनी अपनी प्रवृत्ति द्वारा गुरुको भी पीछे कर दिया। कोसम्बीजीको इसी प्रकाशमे
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{ "From my earliest years whenever I ordered animal food to be cooked for me, I found it rather tasteless and cared little for it. I took this feeling to indicate a necessity for protecting animals and I refrained from animal food "--(Ain-1-Akabarı)
Quoted in English Jain Gazette. p 32 Vol XVII