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जैनशासन
मुख गौर्यका प्रतीक नही कहा जा सकता । वह क्रूरता और अत्याचारका चित्र आखोके आगे खड़ा कर देता है । शेरनीके समान महान् शक्तिका सञ्चय प्रासनीय है, अभिवन्दनीय हैं, किन्तु अत्या - चारीके स्थानपर दोनोका उसका शिकार बनाया जाना " शक्तिः परेषां परिपीडनाय" की सूक्तिको स्नरण करता है । वास्तविक अहिंसक गृहस्य मजबूरीकी अवस्थामे विरोधी हिंसा करता है । ठीक शब्दोमे तो यो कहना चाहिए कि उसे हिंसा करनी पडती है । प्राणघात करनेमे उसे प्रसन्नता नही है, किन्तु वह करे क्या ? उसके पास ऐसा कोई उपाय नही है जिससे वह कण्टकका उन्मूलन कर न्यायकी प्रतिष्ठा स्थापित कर सके । व्याघ्रीकी सर्वदा पशुओको हिंसन-वृत्ति मानवका पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकती, कारण उसमे पशुताकी ओर आमंत्रण हैं । उत्तमे पशुवलके सद्भावके साथ-साथ पशु-वृत्तिका भी प्रदर्शन है । अत. गौर्य के नामपर अत्याचारीके चित्रको आदर्श अहिंसाघारीकी तस्वीर नही कहा जा सकता । वह चित्र अत्याचारी और स्वार्थी ( Tyrant and Selfish ) प्राणीका वर्णन करता है। आदर्श अहिंसक मानवका नही ।
'स्व० रा० व० जस्टिस जे० एल० जैनीने जैन अहिसा के विषयने जो महत्त्वपूर्ण उद्गार प्रकट किए थे उनका अवतरण इतिहासन स्मिय महागय अपने भारतीय इतिहासमे इस प्रकार देते हैं- "जैन आचार - शास्त्र
१. “A Jain will do nothing to hurt the feelings of another person, man, woman, or child, nor will he violate the principles of Jainism, Jain ethics are meant for men of all position-for kings, warriors, traders, artisans agriculturists and indeed for men and women in every walk of life. Do your duty and do it as humanely as you can—this, in brief is the primary principle of Jamism -V. Smith's History of India p 53.
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