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जैनशासन
का घात न होते हुए भी हिंसा निश्चित है। यदि रागादिका अभाव है तो प्राणिघात होते हुए भी अहिंसा है। अमृतचन्द स्वामी लिखते है
"अप्रादुर्भावः खलु रागादीना भवत्यहिसेति। तेषामेवोत्पतिहिंसेति जिनागमस्य सक्षेपः॥"
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लो० ४४ । रागादिकका अप्रादुर्भाव अहिंसा है, रागादिकोकी उत्पत्ति हिंसा है। यह जिनागमका सार है।
तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी लिखते है
"प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपण हिंसा" इस परिभापामे 'प्रमत्तयोग' शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि राग-द्वेष आदि है तो भले ही किसी जीवधारीके प्राणोका नाश न हो, किन्तु कषायवान व्यक्ति अपनी निर्मल मनोवृत्तिका घात करता है। इसलिए स्व-प्राणघातरूप प्राणव्यपरोपण भी पाया जाता है। भारतीय दण्ड विधान (Indian Penal Code) मे किसी व्यक्तिको प्राणघातका अपराधी स्वीकार करते समय उसमे घातक मनोवृत्ति ( Mens rea. ) का सद्भाव प्रधानतया देखा जाता है। इसी कारण आत्मरक्षाके भावसे शस्त्रादि द्वारा अन्यका प्राणघात करने पर भी व्यक्ति दण्डित नहीं होता। धार्मिक दृष्टिसे अहिंसाके विषयमे भी जैनाचार्योने यही दृष्टि दी है। महर्षि कुन्दकुन्द प्रवचनसारमे लिखते है
"मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिसा। पयदस्स पत्थि बधो हिसामत्तेण समिदस्स॥"
-अ० ३, गा० १७ ॥ जीवका घात हो अथवा न हो, असावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेके हिंसा निश्चित है, किन्तु सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले साधुके कदाचित् प्राण-घात होते हुए भी हिंसानिमित्तक बन्ध नहीं होता।
प० श्राशाधरजी तर्क द्वारा समझाते है-"यदि भावके अधीन बन्ध 'मोक्षकी व्यवस्था न मानी जाए, तो ससारका वह कौन-सा भाग होगा,