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अहिंसाके आलोक
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पहले विशेषतया जैन तीर्थकरोने गम्भीरता एव सुव्यवस्थापूर्वक वतलाया और उचित रीति से प्रचारित किया। उनमे भी २४ वे तीर्थकर महावीर वर्धमान मुख्य है । पुन इस अहिंसाका प्रचार बुद्धदेवने किया ।" जो लोग जैनधर्मकी अहिंसाको अव्यवहार्य सोचते हैं, उनके परिज्ञानार्थ डा० तानका यह कथन है, "मानवताका पर्याप्त विकास नही हो पाया है, इससे यह अव्यवहार्य भले ही प्रतीत हो, किन्तु जब मानवताकी विशेष उन्नति होगी तथा वह उच्च स्तरपर पहुँचेगी, तब अहिंसा विशेष व्रत सवको पालना होगा एव सभी इसका पालन करेंगे।"" "चीन एव भारतमे शुद्ध अहिंसाको भूमिकापर अवस्थित व्यापक संयुक्त संस्कृतिका निर्माण करने के उपरान्त हमे यह उचित होगा, कि हम उसी अहिंसा के आधारपर व्यापक विश्व सस्कृतिका निर्माण करे ।" अत हमारा आद्य कर्तव्य परिशुद्ध अहिंसा के स्वरूपको हृदयगम करना है।
अहिंसाका यथार्थ स्वरूप राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, भीरुता, शोक, घृणा आदि विकृत भावोका त्याग करना है। प्राणियोके प्राणोके वियोग करने मात्रको हिंसा समझना अयुक्त है। तात्त्विक बात तो यह है कि यदि राग, द्वेष, मोह, भीति आदि दुर्भाव विद्यमान है, तो अन्य प्राणी
"Humanity has not yet progressed enough When humanity has sufficiently developed and reached in certain higher stage, this law of Ahimsa should be and would be follwed by all "
"We chinese and Indians the two greatest people of the world should culturally join together and mingle together to create, to establish, to promote a common culture called Sino-Indian Culture entirly base on Ahimsa We shall further create, establish and promote a common world culture on the same basis " Vide Am - rit Bazar Patrika p. 7 and 8, 31-10-4..
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