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अहिंसाके आलोकमे
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जहा पहुँच मुमुक्ष पूर्ण अहिंसक बननेकी साधनाको पूर्ण करते हुए निर्वाण लाभ करेगा?
अहिंसापर अधिकारपूर्ण विवेचन करनेवाले अमृतचन्द्र सूरि पुरषार्थसिद्ध्युपायमे लिखते है
"सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिवन्धना भवति पुसः। हिसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या॥ ४६॥"
परपदार्थके निमित्तसे मनुष्यको हिंसाका रञ्च मात्र भी दोप नहीं लगता, फिर भी हिसाके आयतनो-स्थानो (साधनो) की निवृत्ति परिणामोकी निर्मलताके लिए करनी चाहिए।
इससे स्पष्ट होता है कि हिसाका अन्वय-व्यतिरेक अशुद्ध तथा मुद्ध परिणामोके साथ है। क्रोध परित्यागको अहिंसा और उसके सद्भावको हिसा साधारणतया लोग जानते है। जैन ऋपि मान-माया-लोभ, गोक, भय, घृणा आदिको हिंसाके पर्यायवाची मानते है क्योकि उनके द्वारा चैतन्यकी निर्मलवृत्ति विकृत तथा मलीन होती है
"अभिमान-भय-जुगुप्सा-हास्यारति-शोक-काम-कोपाद्याः। हिसाया' पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसन्निहिताः॥"
-पु० सिद्ध्युपाय ६४। आहार-पान आदिकी शुद्धि अहिंसकके लिए आवश्यक है। क्योकि, अशुद्ध आहार अपवित्र विचारोको उत्पन्न करता है और अपवित्र विचारो से कर्मोका वन्ध होता है। साधककी शक्तिके अनुसार अहिसाका न्यूनाधिक उपदेश दिया गया है। अत यह पूर्णतया व्यवहार्य है। एक खदिरसार नामक भील था। उसने केवल काक-मासभक्षण न करनेका नियम ले उसका १ "विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत। भावकसाधनों बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ॥"
-सागार० ४, २३॥