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प्रबुद्ध-साधक
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अवस्थामे दिगम्बर तपस्वियोके पास विश्वको चमत्कृत करनेवाली बात भले ही न दीखे, किन्तु न जाने इनमेसे किस साधकको अखण्ड समाधिके प्रसाद रूप अपूर्वं सिद्धिया प्राप्त हो जाएँ । भगवान् पार्श्वनाथने आनन्द महामुनिके रूपमे तीर्थकर - प्रकृतिका वध किया था - विश्व हितकर अनुम आत्मा बननेकी साधना अथवा शक्ति सचय प्रारम्भ कर दी थी । उस समय उनके योग-वलकी महिमा अवर्णनीय हो गई थी । कविने उनके प्रभावको इन शब्दोमे अकित किया है
फलै ॥
तर्ज |
"जिस बन जोग धरै जोगेश्वर, तिस बनकी सब विपत टलें । पानी भहि सरोवर सूखे, सब रितुके फल-फूल सिहादिक जो जात विरोधी, ते तब बैरी नेर हस भुजंगम मोर मजारी, आपस में मिलि प्रीति भजै । सोह साधु चढे समता रथ, परमारथ पथ गमन करे । शिवपुर पहुंचनकी उर बांछा, और न कछु चित चाह धरै । देह - विरक्त ममत्त बिना मुनि सबसौं मैत्री भाव बहै । श्रातम लीन, अदीन, अनाकुल, गुन बरनत नहि पार लहै ।" - पार्श्वपुराण, भूधरदास दिगम्बर जैन मुनिका जीवन और मुद्रा जगत्को पुकार-पुकार कर जगाती हुई कहती है क्यो मोहके फदेमे फँसकर विकृति और विपत्तिकी ओर दौडे चले जा रहे हो । आओ, अकिंचनताका पाठ पढो, प्रकृतिके प्रकाश आत्माकी विकृतिको धो डालो, तव तुम्हारे पास आनन्द तथा शान्तिका निर्झर उद्भूत हो सबका कल्याण करेगा। देखते नही, सारी प्रकृति किसी प्रकारका आवरण धारण नही करती - एक मनुष्य है जो अधिक ज्ञान सम्पन्न होते हुए भी अपने विकारो एव अपनी दुर्बलताओ को दूर न कर उनपर सुन्दर वस्त्रादिका मोहक आवरण डाल अपने आपको तथा जगत्को ठगता है। देखो न आख पसार कर, हरिण पक्षी आदि सभी प्राणी दिगम्बरत्वकी मनोरम मुद्रासे अकित है ।