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जैनशासन
इस विषयका विस्तृत विवेचन भगवती श्राराधना नामक श्रमणचर्या समझानेवाले प्रथमे किया गया है। सर्वार्थसिद्धिकी निम्न पक्तिया सक्षेप इस विपयको भली प्रकार स्पष्ट करती है
" रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं धनतः स्वघातो भवति न सल्लेखना प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति, ततो नात्मवधदोपः ।" - सर्वार्थसिद्धि श्र० ७ सू० २२ ।
far, rer आदि उपकरणोके प्रयोगसे राग-द्वेष मोहाविष्ट प्राणी द्वारा आत्माका घात करनेपर स्वका घात होता है । समाधिमरणको प्राप्त व्यक्तिके राग-द्वेष मोहादिक नही होते, इसलिए आत्म-वधका दोप नहीं होता है ।
दिगम्बर मुनीन्द्रोकी शान्त, श्रेष्ट, निरीह, निराकुल, उदात्तचर्याका जिस किमी सात्त्विक प्रकृतिवाले मानवको दर्शन हो जाता है उसकी आत्मा में यह विचार अवश्य उत्पन्न होता है, जिसे कवि भूधरदासजी इन शब्दों में प्रतिविम्बित करते है -
"कव गृहवाससों उदास होय वन सेऊ, चेॐ निज रूप गति रोकूं मन करी की । रहि हो डोल एक आसन चल ग
सहि हीं परीसह शीत, धाम, मेघ-भरी की ॥ सारंग समाज खाज कबधौ खुजै है प्रानि,
ध्यान, दल जोर जीतू सेना मोह श्ररी की। एकल विहारी जथाजात लिंगधारी स्त्र
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होऊँ इच्छाचारी बलिहारी हौं वा घरी की ॥ " - जैनशतक
दिगम्बर मुनि विज्ञानामृतको पो तथा तपश्चर्यारूपी सुस्वादु वलप्रद आहारको ग्रहण कर शनै गर्ने विकास पथपर प्रगति करते हुए इतनी उन्नति करते हैं, कि जिसे देख जगत् चकित हो जाता है। प्राथमिक