________________
जैनशासन
शान्तिपूर्वक ग्रहण करते हैं । इनके आहारनिमित्त गृहस्थको कोई कठिनाई नही होती। ऐसे योगियोको आहार अर्पण करनेके समयको वह अपने जीवनकी सुनहरी घडियोमे गिनता है। कारण, इस पवित्र कार्यसे गृहवासमे चक्की, चूल्हा, ऊखली, बुहारी, जल-सग्रह रूप, 'पच-सूना' नामके कार्यों द्वारा सचित दोषोका मोचन होता है। साधु दैन्यपूर्वक आहार ग्रहण नही करते । गृहस्थ श्रद्धा, भक्ति, प्रेम और आदरपूर्वक जब आहार ग्रहण करनेकी मुनिराजसे प्रार्थना करता है, तब वे शुद्ध, सात्त्विक तथा श्रेष्ठ अहिंसात्मक वृत्तिके अनुकूल आहार लेते है । अन्य-पथी साधु नामधारी व्यक्तियोके समान गाजा तमाखू हुक्का ग्रहण करना, मनमाना भोजन लेना, दिन और रात्रिका भेद न रखना आदि वातोसे ऐसे सन्त पृथक् रहते है।
१०८
कोई-कोई सोचते है - महान् साधुको शुद्ध-अशुद्ध आदिका भेद भूल जैसा भी भोजन जब जिसने दिया, उसे ले लेना चाहिए। यह विचार भूमपूर्ण है । साधुओका विवेक सदैव सजग रहता है। उसके प्रकाशमें अहिसात्मक वृत्तिकी रक्षा करते हुए वे उचित और शुद्ध आहारको ही ग्रहण करते है । वेदान्त-सारमे लिखा है- यदि प्रबुद्ध तत्त्वज्ञानीके आचरणमे स्वच्छन्दताका प्रवेश हो जाए तब तत्त्वज्ञानी और कुत्तेकी अशुचिभक्षण वृत्तिमे क्या अन्तर रहेगा ।'
जैन - मुनिका केश लोच और आहार चर्या दर्शकके चित्तमे गहरा प्रभाव डाले बिना नही रहते । औरगजेबके समयमे भारत आनेवाले डा० बनियर अपनी पुस्तकमें लिखते है - "मुझे बहुधा देशी रियासतो में दिगम्बर मुनियोका समुदाय मिलता था। मैने उन्हे बडे शहरोमे विहार करते हुए पूर्णतया नग्न देखा है और उनकी ओर स्त्रियो, लडकियोको
१ "बुद्धाद्वैतस तत्त्वस्य यथेष्टाचरण
यदि । शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचिभक्षणे ॥" पृ० १४ ।